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( १४४ )
. पनी वर्णना रे, विवाहपन्नत्ती अधिक प्रमाण रे ॥ पं० ॥ ४ ॥ करिये पूजा ने परजावना रे, धरिये सदगुरु ऊपर राग रे ॥ सुणिये सूत्र जगवती रागसूं रे, तो होय जवसागरनो त्याग रे | पं० ॥ ५ ॥ गौतम नामे द्रव्य चढाइये रे, सम्यक् ज्ञान उदय होय जेम रे ॥ कीजै साधु तथा साहमी तणी रे, जगति युगति मन आणी प्रेम रे || पं० ॥ ६ ॥ इण विधसुं ए सूत्र
राधां रे, जव सीके वंचित काज रे ॥ परजव विनयचंद्र कहे ते लहे रे, मोहन मुगतिपूरीनो राज रे ॥ पंच० ॥ ७ ॥ इति श्री जगवती सूत्र सज्जाय सं० ॥
॥ अथ ६ ॥ ज्ञातासूत्र सज्झाय लिख्यते ॥
|| ढाल || कितलख लागा राजाजीरें मालियै ॥ ए देशी ॥ as अंग ते ज्ञातासूत्र वखाणियै जी, जेहना है अरथ छानेक उद्दम हो || म्हारा सुज्यो धरि नेह सिद्धांतनी वातकी जी ॥ श्रवणे सुतां गाढो रस ऊपजे जी, मधुरता तर्जित जिम मधुखंक हो || म्हा० ॥ १ ॥ जंबुद्दीवपन्नत्ती उपांग है जेहनो जी, इ मां जिन पूजानी विधि जोरहो ॥ म्हा० ॥ कि सुषि परम शांतिरस अनुवे जी, चर्चिक सुणि करै सम सोर हो । म्हा० ॥ २ ॥ नगर उद्यान चैत्य वनखंग सोहामणो जी, समवसरण राजानो मातने तात हो || म्हा० ॥ धरमाचारज धर्मकथा तिहां दाखवी जी, इह लोक परलोक शद्धि विशेष सुहात हो || म्हा० || ३ || जोग परित्याग प्रव्रज्या पर्षदा जी, सूत्र परिग्रह वारू तप उपधान हो || म्हा० ॥ संलेह पच्चरकाण पादपोप गमनता जी, स्वर्ग गमन शुभ कुल उतपत्तान हो || म्हा०
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