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विनय क स्तवनं समाप्तम् ॥
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( १०५ )
द ए ॥ ५० ॥ इति श्रीपंचसमवाय वृद्ध
॥ अथ वैरागनी सजाय ॥
॥ मोह नगर मारुं सासरं अविचल सदा सुखवासरे। पण जिनवरने टिये त्यां करो लील वीलासरे० मो० ॥ १ ॥ ज्ञानदर्शन यां याविया । करो करो जक्ति अपार रे || शीलशिएगार पहेरो पदमणी उठी उठी जिनसमरो सार रे० मो० ॥२॥ विवेक सोवन टीलुं तपतपे साचो साचो वचन तंबोल रे ॥ संतोष काजल नय जय जीवदया कुंकुम घोलरे० मो० ॥ ३ ॥ समकीत वाट सोहामणी संजमवहेल उजमाल रे ॥ तप जप बलदीया जो तय जावना रास रसाल रे० मो० ॥ ४ ॥ कारमो सासरो परी हरो चेतो चेतो चतुर सुजाण रे । समयसुंदर मुनि एमजणे त्यां वे नवि निर्वान रे, मो ॥ ए ॥ इति संपूर्ण ॥
॥ थांपर वारिहो जिनजी श्री सिद्धाचल शिखरे शेषन जले जेटिया हो राज रु० ज० जे० शां० पूर्व संचित अशुभ करम समेटिया हो राज थां० सोरव देशमे शोजता हो राज थां० दोय तिरथ मनुहार जव्य जन तार ता हो राज० म० श्रा० ॥ १ ॥ प्रथम शेत्रुंजयगिरि जयो हो राज थां० तीन जुवन शिरताज आज दरशा लह्यो राज० ० यां० ॥ २ ॥ नेमि जिनेसर राजियो हो राज० थां० श्याम सलूषो दीदार रेवत गिरि गाजियो हो राज० ॥ ३ ॥ पांचको मुनि परिवर्या हो राज यां० पुंरुरीक गणधार चैत्री शिव सुखवर्या हो राज० श्रां०
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