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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०★★★ ★★★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् हैं और विवाहसे विमुख हैं । जो कन्यायें पिता, माता आदि वृद्ध जनोंके वश नहीं हैं वे मान्यताको प्राप्त नहीं होती हैं ॥ १०२ ॥ तृणं च धेनुर्महिषी जलं च भजत्यलं दोग्धि च स्वादुदुग्धं । धत्ते च कार्यं स्तनवद्विषाणौ तस्मात्ततोऽसौ भृशमर्चनीया ॥ ११० ॥ तीर्थानि देवा मुनयश्च सर्वेऽप्येकत्र घेनौ यदि संवसन्ति । सैकैव मान्या परमस्तु नान्याः सर्वत्र चेत्स्युर्बत ते दिताङ्गाः ॥ १११ सर्वत्र सर्वेऽप्यथवा वसन्तु स्वावासभूताखिलधेनुकानाम् । बाधाः किमेते न निवारयन्ति दुःस्थोऽपि संरक्षति यत्स्वधाम || ततो न गावो बुधमाननीयाः संगं जनन्याप्यनुजाङ्गजाभिः । कुर्वन् षोऽर्यः किमु पिप्पलचे पूज्यो भवेत्किं सुफलो न चूतः ॥ अर्थ- गाय जो घास और पानी खाती है वहीं भैंसभी खाती है और गायसेभी स्वादिष्ठ गाढा दूध देती है, तथा गायकी तरहही उसका शरीर, स्तन और सींग होते हैं । अतः भैंस गायसे अधिक पूज्य है ॥ ११०॥ अर्थ - सब तीर्थ, सब देवता और मान यदि एकही गायमें निवास करते हैं तो जिस एक गौमें वे सब निवास करते हैं वही गौ पूज्य होनी चाहिये । अन्य नहीं । और यदि वे सब गायोंमें निवास करते हैं तो प्रत्येक गायमें खण्ड खण्ड करके रहने के कारण वे सब खण्ड खण्ड शरीरवाले हुए । अथवा सब देवता वगैरह सब गायोंमें रहे आओ । किन्तु वे सब अपने आवासभूत गायोंके कष्टों को दूर क्यों नहीं करते; क्यों कि दरिद्रसे दरिद्र मनुष्य भी अपने निवासस्थानकी रक्षा करता है ॥ ११२ ॥ अतः समझदार मनुष्योंके लिये १ ल. सान्द्रदुग्धम् । २ ल. चेत् For Private And Personal Use Only
SR No.020127
Book TitleBhavyajan Kanthabharanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhaddas, Kailaschandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages104
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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