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भव्यजनकण्ठाभरणम ************************** ३९
गतिस्वभावात्तमनोऽन्धसोऽपि ग्रहाः श्रिताध्वानगिरिदुरुमापः । अझैरजादीनभिपात्य हिंसानन्दाख्यरौद्रान्मुदमाप्नुवन्ति ।। १०६॥
अर्थ- ग्रह सदा चलते रहते हैं और मानसिक आहार करते हैं। तथा मार्ग, पर्वत, वृक्ष और जलका आश्रय करते हैं। फिरभी अज्ञानी लोग बकरे वगैरहका बलिदान करके हिंसानन्द नामक रौद्रध्यानसे उन्हें प्रसन्न करते हैं ॥ १०६ ॥ नश्यन्ति नागा नकुलस्य नादैरदन्त्यभक्ष्यान्यपि दर्दुराखून् । दशन्ति भक्त्या भजतोऽपि जीवांश्चित्रं तदेषां भुवि देवतात्वम्।।१०७
अर्थ- सर्प नेवलेका शब्द सुनतेही भाग जाते हैं। और अभक्ष्य- न खाने योग्य मेढक और चूहोंकोभी खाते हैं। तथा जो प्राणी भक्तिभावसे उनकी सेवा करता है उसेभी डसते हैं। अतः पृथ्वीपर उनका देवपणा आश्चर्यजनकही है।
भावार्थ- सोको मूढ लोग नागदेवता मानकर पूजते हैं। उसीपर ग्रन्थकारने आपत्ति की है ॥ १०७ ॥
आमन्त्रणाद्यपिवतोऽपि मद्यपायीनिति क्लेशपरम्परा स्यात् । पिबन्ति मद्यं तदपि प्रणिन्धं क्रव्येण यास्ताः किमु कीर्तनीयाः ।। ____ अर्थ- दुसरोंके बुलानेसे जो मद्यपान करते हैं वे भी कष्ट उठाते हैं। फिर जो शिवकी शक्तियां मांसके साथ उसी निन्दनीय मद्यको पीती हैं उनके सम्बन्धमें क्या कहा जाये ? ॥ १०८ ॥
मान्यैर्महाश्रीरपि मातरोऽपि श्मशानवासिन्यपि मारिकाद्याः । कन्या न मान्या जनकाद्यवश्याः स्वैर चरन्त्यो विमुखा विवाहात् ॥
___ अर्थ- महाश्री, श्मशानवासिनी, मारिकादि जो मातायें हैं वे मान्योंके द्वारा मान्य नहीं हैं। क्यों कि वे स्वच्छंद से विहार करती
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