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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra देवानुचर, असुरावि कोन विनंती स्वरूप ७. विद्याधर : www.kobatirth.org ८. गांधर्व मालाविद्याधरव ॥ इति विद्याधर, ( श्राग्नये ) विद्याधर पुष्पमाला सहित प्रकाश में घूमते हैं (आग्न्ये) वरदो भक्तलोकाना कुंड कार्यातुरूपधयों बीणा वादन्यस्तथा ॥८॥ भक्त लोगों को वरदान देनेवाले, विष्णु आदि के गांधर्व युगल, किरीट-मुकुट धारण किये हुए, हाथ में वीणावाद्य लिये होते उड़ते है । ९. किन्नर : योणा हस्त किरास्य ॥ ( ये ). हाथ में वीणावाद्य धारण किये हुए किन्नर का स्वरूप है। अन्य जगह किन्नर का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा गया है कि पशु जैसा उनका शरीर है। कमर के ऊपर के भाग में पुरुषाकृति है, मुख गरुड़ का है। और दो हाथ मुकुट-कमल रूप जुड़े हुए होते हैं। १०. असुर : किरीट कुंडलपेतस्तीक्ष्णदंष्टा भरा नानाशस्त्रधरा कार्या दैत्यासुरगणादिधः ॥१०॥ शिल्परत्नम् किरीट-मुकुट और कुंडलधारी, तीक्ष्ण दंतवाले, तथा अनेक भयंकर शस्त्रधारी, वे दैत्य और असुर गण के अधिपति हैं । ११. दानवः दानवाविकारा भृकुटिकुटिलानना । किरीटेन च कुब्जेन मंडिता शस्त्र पाणवः । नाना रूप महाकाय दंष्ट्रा करालवदना ॥११॥ शिल्परत्नम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईद्रक्ता एव बेताला दीर्घदेहाः कृशोदराः पिशाचा राक्षसाश्वैव भूतवेताल जातयः निर्माते सर्व विकृत रूपिणः ।।१२।। शिल्परत्नम् विकराल स्वरूपवाले, वक्र भ्रमरयुक्त, किरीट-मुकुटधारी, कुबड़े मुखवाले, अनेक शस्त्र और आभूषणधारी, महाकाय, भयंकर मुखवाले दानव होते हैं। १२. ६१ रक्तवस्त्रधरा कृष्णा नखदीर्घाः सदंष्ट्रिका afraवांग हस्ताच राक्षसा घोररूपिणः ॥१३॥ मयदीपिका लंबी देहयुक्त, बैठे हुए पेटवाले वेताल होते हैं । पिशाच, राक्षस और भूत ये सब वेताल की जाति के ही हैं । वे सर्व मांसरहित, हड्डीयुक्त, देह के भयंकर विकृत स्वरूपवाले होते हैं । १३ राक्षस : भूतास्तथव दानवाश्च दीर्घवक्रा पिशाचका निर्मासा कृशोदरा रौद्र विकृतरूपिणः ॥ मयवोपिका वे लाल वर्णं के वस्त्रों से युक्त, श्याम वर्ण के देहवाले, लंबे नखवाले और भयंकर स्वरूपवाले होते हैं । उनके हाथों में कीर्ति और खट्वांग होते है । राक्षस ऐसे घोर रूपवाले होते हैं । १४. भूतः For Private And Personal Use Only भूत, दानव और पिशाच के देह मांसरहित, केवल हड्डीवाले होते हैं। और इन सभी के मुख लंबे होते हैं। बैठा हुआ पेट और भयंकर रूप, यही भूतों का स्वरूप है। १५. प्रेतः महोदरा कृशाङगाश्च रौद्र विकृतानना ।।१५।।
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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