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देवानुचर, असुरादि अकोन विशंती स्वरूप
प्रकार की मूर्तियाँ बनती थीं, इसके अनेक प्रमाण इस प्रकार के मंदिरों एवं शात्रों में मौजूद हैं।
भूत, प्रेत, राक्षस, असुर, दानव आदि की मूर्तियां गर्भगृह के कौन-से भाग में बैठायी जायें, इस संबंध में नागरादि शिल्पग्रंथों, द्रविड ग्रंथों और पुराणों में वर्णन मिलता है। शास्त्रोक्त विधि से उन मूर्तियों की पूजा होती थी, और उनके मंदिर भी बनते थे। यह १९ स्वरूप शिल्प और चित्रकर्म में रचने का आदेश प्राचीन शिल्प ग्रंथों में मिलता है।
जैन आगमों में प्राचीन देववाद के चार प्रधान वर्ग कहे गये हैं। १. ज्योतिष (नौग्रहादि) २. वैमानिक (इन्द्रादि देव) ३. भुवनपति (असुर और नाग-दो वर्ग में) ४. व्यंतर (जिसमें यक्ष, गंधर्व, विद्याधर, राक्षस, पिशाच, भूत आदि)
हिन्दू शास्रों के पौराणिक कथानकों में देवों के प्रतिपक्षी के रूप में दानवों, असुरों और राक्षसों को माना गया है। उनके बीच भयंकर युद्धों का वर्णन पुराणों में और रामायण तथा महाभारत में मिलता है। भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी (डाकिनी), इन चारों का उल्लेख पुराणादि ग्रंथों में पाया जाता है। और शिल्पशास्त्रों में उनके स्वरूपों के वर्णन दिये गये हैं। वे इस प्रकार हैं: १. ऋषिमूर्ति :
जटामुकुट कुर्चाय हस्ते दंडपुस्तकम्
यज्ञसूत्रोतरीयत्र त्वरूपंऋषिमूर्तिय ॥१॥ जटा धारण किये हुए, ऋषि के मुख पर दाढ़ी और हाथ में माला तथा पुस्तक है। वे यज्ञसूत्र-उपवीत और उत्तरीय-वस्त्र पहने होते हैं। ऐसा ऋषि का स्वरूप है। २. हनुमंत:
हनुमंत महावीर पनोतीपादनिम्नकः
गदा पर्वत हस्तेन मुख वानर वा नर ॥२॥ श्रीराम के अनुचर महावीर हनुमंत पैर के नीचे पनोती को दबाकर खड़े हैं। हाथ में गदा और पर्वत धारण किये हुए हैं। उनका मुख वानर का (या नर का?) है। वे दक्षिण बायव्य में होते हैं।
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