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अङ्ग : चतुर्दशम्
देवानुचर, असुरादि अकोनविंशती स्वरूप (Heavenly Followers and Asuras)
देवानुचर के कई प्रकार है। देवकोटि के बाद ऋषिकोटि और क्षेत्रपाल कक्षा के भी हैं। अनुचर कक्षा के पांच-हनुमान, यक्ष, यक्षिणी, पितृनाग, वेताल का उत्तर पूजन होता है। उसके बाद के चार उत्तरानुचर, विद्याधर, किन्नर, गंधर्व और अप्सरा देवांगना को मध्यम कोटि का माना गया है। देवताओं के तीन प्रतिस्पर्धी दानव, असुर और राक्षस को अधम कोटि का माना गया है। भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी, ये चारों प्रेतयोनि के भटकते और लुप्त होते अधम योनि के जीव हैं। इनके सभी स्वरूप शिल्पग्रंथों में वर्णित है। मूल श्लोक के साथ उनके पाठ यहां दिये गये हैं।
देवों के अनुचर यक्ष, यक्षिणी, नाग, हनुमंत और बेताल की प्रतिमाओं का, फल की आकांक्षा से कई भाविक लोग मंदिर बांधकर पूजन करते हैं। ६४ योगिनियों और ५२ वीर वेताल के भी मंदिर बांधे हुए मिलते हैं। मध्य प्रदेश में १० वीं शताब्दी का ६४ योगिनी का मंदिर और जबलपुर के पास ११ वीं शताब्दी का एक कलामय मंदिर देखने को मिलता है। १८ वीं शताब्दी के वेताल और वीर के मंदिर उतर गुजरात में, ऊँझा में, जीर्ण अवस्था में विद्यमान हैं। ऐसे मंदिरों की दीवालों पर देवों के प्रतिस्पर्धी दानवों, असुरों, राक्षसों और भूतप्रेतों की प्रतिमाएं भी उत्कीणित मिलती है। हालांकि इस प्रकार के मंदिर बहुत कम देखने को मिलते हैं, फिर भी इस
ऋषी RISHI
नाग दासुकी NAG VASUKI
किन्नर KINNAR
यक्ष YAKSHA
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