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भारतीय शिल्पसंहिता
नहीं देतीं। परन्तु सूर्य की किसी प्रतिमा में उपान न हो तो उंगलियां दिखाई देती हैं। सूर्य-पूजा के मध्य एशिया से भारत में आने की पूरी-पूरी संभावना है। पिछले काल की मूर्तियों में सूर्य के पैर में उंगलियां उत्कीर्ण की हुई मिलती हैं।
कार्तिक स्वामी स्कंद द्रविड में खूब पूजे जाते हैं। लेकिन उत्तर भारत में उनके स्वतंत्र मंदिर नहीं है। शिव के यह जेष्ठ पुत्र मध्य एशिया की ओर बसे है, ऐसा माना जाता है। इसीलिये स्कंद और सूर्य की छाती के वस्त्र की आकृति मिलती-जुलती है।
दिगंबर या श्वेतांबर जैन संप्रदायों की बैठी हुई या खड़ी मूर्तियों में वस्त्र, अलंकार-आभूषण नहीं होते हैं। कारण वे वीतराग है। श्वेतांबर मूर्ति को सिर्फ़ लंगोट-कच्छ होता है। उस संप्रदाय की मूर्तिया तुरंत पहचानी जा सकती हैं।
आभूषण तथा अलंकारों में प्रान्त और काल भेद से वैविध्य मिलता है। व्याघ्रचर्म, मृगचर्म और कृष्णमृगचर्म भगवान शंकर कटि प्रदेश में धारण करते हैं।
प्रत्येक युग की कला अपनी-अपनी विशेषताएं व्यक्त करती है। गुप्तकाल की मूर्तियों में माला, मुकुट, मकर मुखी से विभूतषि आभूषण, कंठ में स्थूल मुक्त-कलाप से निर्मित एकावली माला, उसके मध्य में इन्द्रनील, कानों में ताटंक-चक्र, नागेन्द्र या मुक्ताफल जड़ित कुंडल, स्कंध पर उपवस्र (जैसे मेखला स्थान में बांधे हुए), इनसे गुप्तकालीन लोकसंस्कृति का परिचय मिलता है। यह उस काल की कला को व्यक्त करता है।
सांची की कला में प्राकार वज्र का तोरण, स्तंभों के शिल्प में कुंडल, जो सामने से देखने से चारों ओर ठोस और भरी होता है। वे स्त्री-पुरुषों के कान में दिखाई देते है।
___ कुषान काल में पान के पत्ते की आकृति वाले मुकुट, भुजाओं में नाचते मोहिनी प्राकृति से अलंकृत मयूर-केयूर, यह उस युग की विशेषता है।
कर्णाटक प्रदेश के होयसल राज्यकाल के मंदिर हलेबीड, बेलुर और सोमनाथपुरम् के मंदिरों की मूर्तियों के आभूषण उस प्रदेश की कला की भिन्नता दिखाते हैं। वहाँ की मूर्तियों के आभूषण मानो भार से लदे हुए हों, इस तरह उत्कीर्ण किये गये हैं। देवताओं के मस्तक के ऊपर का मुकुट देव के मस्तक से वजनदार और चौड़ा दिखाई देता है। अलबत्ता, वहाँ का शिल्प इतना सुंदर होता है कि प्राथमिक दृष्टिपात में यह दोष दिखाई नहीं देता। देवांगनायें भी स्थूल दिखाई देती हैं, पर होती है बड़ी सप्रमाण। प्रत्येक मूर्तिके ऊपर और आगलबगल बेल वृक्ष के पत्ते आदि कंडारे होते हैं ।
द्रविड मे तांजोर प्रदेशकी मूर्तियों का मुकुट मुखकी उंचाई से दुगुणा उंचा होता है। इस तरह कला के अलंकार-निरूपण का विविध दृष्टिकोनों से तथा संपूर्ण सामग्री के साथ अच्छी तरह अध्ययन करना चाहिये।
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