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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७ षोडशाभरण (अलंकार) में पायी जाती हैं। प्रागम ग्रंथों और गृह्य सूत्रों में यज्ञोपवीत के स्पष्ट उल्लेख हैं। दो हजार वर्ष पूर्व की बुद्ध मूर्तियों में यज्ञोपवीत मिलता है। उसी तरह जैनों की प्राचीन मूर्तियों में भी यज्ञोपवीत दिखाई देता है। १३ कटिसूत्र : कमर पर बांधने के बस्र को पटकूल कहा है। ऐसे कमर के आभूषण को कटिसूत्र कहते हैं। कटिसूत्र के तीन कंदोरे वाले पट्टे के सम्मुख मध्यभाग में पेडू पर सिंह या ग्रास का मुखबंध होता है। रत्नजडित कटिसूत्र पर सोने की बारीक नक्शी होती है। भिन्न-भिन्न काल की मूर्तियों में कटिसूत्र की रचनाएं अद्भुत होती है। कटिसूत्र से जंघा पर लटकती मोती की पंक्तियों या माला को उरुद्दाम या रुद्र दाम भी कहते हैं। कई लोग उसे भिन्न आभूषण के रूप में गिनाते हैं। गुप्तकाल का पाभरण कटीसूत्र KATISUTRA १४ उरुद्दाम: उरुसूत्र : कटिसूत्र से तोरण की तरह लटकती मोती की मालाओं को 'उरुद्दाम' कहते हैं। मालाओं के बीच में लटकती लटों (पंक्तियों) को 'मुक्तदाम' कहते हैं। पेडू के ऊपर बीच में झूलते मोती के तोरण में बहुत बारीक नक्शी होती है। उरुद्दाम को कई लोग मुक्तदाम भी कहते हैं। प्राचीन मूर्तियों में वह नहीं दिखती है, लेकिन गुप्तकाल की किसी-किसी मूर्ति में वह होती है। द्रविड-चोल के बाद के समय में यह उरुद्दाम दिखाई पड़ता है। बदामी शिल्प में दोनों ओर की जंघाओं पर एक-एक पंक्ति दिखाई देती है। १५ पादजालकः __ पैर के टखने के नीचे, पैर के पंजे पर प्रावृत्त लंबगोल आकृति के आभूषण को पादजालक कहते हैं। वह घुघरू वाले नूपुर जैसा होता है। सौराष्ट्र में उसे 'कांबी' कहते हैं। लक्ष्मी और अन्य देवियों को बहुत छोटे धुंघरुओं का नूपुर का आभूषण पहनाया जाता है। 'मान सोल्लास' ग्रंथ में पादचूड़क, पादभूषण या राढ़व आदि के पैर के आभूषण वर्णित हैं। १६ अंगुली मुद्राः हाथ-पैरों की अंगुलियों में गोल वलय प्रांटेवाली अंगूठी, तथा हाथ के बीच की उंगली में हीरा-जड़ित अंगुलिका होती है। होयसल राज्यकाल की मूर्तियों में दो-तीन आंटे की अंगूठी होती है। उसे पवित्रमुद्रा कहते हैं। गुजरात में उस मुद्रा को वेढ़ कहते हैं। हाथों की उँगलियों की तरह पैर की उँगलियों में भी मुद्रा पहनायी जाती है। १७ विशेषाभरणः प्राभूषणों के माप, प्रतिमा के अंग के अनुपात में करने चाहिये। विष्णु या दशावतार की मूर्ति की छाती में श्रीवत्स के स्थान पर कौस्तुभ-मणियुक्त बैजयन्ति (माला)होती है। जैन तीर्थंकर की छाती में श्रीवत्स का चिन्ह उभरा हुआ होता है। श्रीवत्स को क्वचित रोमावली की संज्ञा कहते हैं। बौद्ध और जैन, इन दोनों की मूर्तियों के मस्तक पर उभरे चिन्ह को उष्णिश कहते हैं। इन दोनों संप्रदाय की मूर्तियों के मस्तक में जो गोलाकार गुच्छ दिखाई देता है, वह उनके बाल का गुच्छ है। For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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