________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अंड: नवम्
नृत्य (Dance)
नृत्य-कला का प्रादि-स्वरूप शिव के तांडव नृत्य को माना जाता है। इसलिए नृत्य-कला के आद्यपिता शिव माने जाते हैं। महर्षि भरत ने नाट्य-शास्र पर एक समृद्ध ग्रंथ पद्य में लिखा है। यह ग्रंथ नृत्य-कला के लिए प्रमाणभूत माना जाता है। वाद्य, ताल, गीत, सप्तस्वरादि भेद और तांडव आदि नृत्य का कला के रूप में 'अपराजित सूत्र' नामक शिल्प ग्रंथ में निरूपण किया गया है। उग्रताण्डव के साथ लास्यताण्डव के उल्लेख भी शिल्प-ग्रंथों में दीया गया है।
शास्रकारों ने नृत्य में अंग-भंग से होनेवाले अनेक भेदों के वर्णन किये हैं। पाद, ताल, कटि, वक्ष, ग्रीवा, बाहु, मुख, नासिका और दृष्टि से व्यक्त होने वाले भाव और भ्रमर रेखा से प्रकट होने वाले भाव, नृत्य-कला में होनेवाले अंग-भंग द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। नृत्यकला में मुख, हाथ, दृष्टि और अंग-भंगी को ही अभिनय की महत्त्व की मुद्राएं माना गया है। नृत्य, संगीत, और ताल ये सब एक दूसरे के पूरक हैं। तांडव-नृत्य सामान्य नृत्य नहीं है, परंतु वह शिव का प्रलयंकर नृत्य है। द्रविड प्रदेशों के स्थापत्यों में शिव-तांडव की रुद्र प्रतिमा बहुत-सी जगहों पर पायी जाती है। चिदम्बरम् के नटराज मंदिर में १०८ प्रकार के नृत्य स्थापत्य में अंकित किये गये हैं। उत्तर भारत में नटराज की प्रतिमाओं का, दक्षिण प्रदेश के समान प्राधान्य नहीं है। वहां शिवलिंग की पूजा का विशेष महत्त्व है । द्रविड में भी लिंग पूजा तो होती ही है !
कटिसम नृत्य द्रविड प्रदेशों में, ललित नृत्य इलोरा में, ललाट तिलक कांजीवरम् में और चतुरम् तंजौर में प्रचलित है। शिवनृत्य में सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा और संहार का मिश्र स्वरूप समाया है।
नृत्य में वाद्य, ताल और गीत का मेल है। आजकल मूक नृत्य का प्रयोग भी प्रचलित है । लेकिन इससे इतना रस उत्पन्न नहीं होता। मुख द्वारा गीत के पालाप का निर्णय होता है। नृत्य में भावानुसार भाव संक्रांति भी होनी चाहिए। लेकिन हाथ से अर्थ-भाव की कल्पना होती है। यह सब नृत्य लक्षण हैं। मालिढ्य, प्रत्यालिढ्य और उत्कटिक इन सब पादमुद्राओं को भी नृत्यकला में निश्चित ही स्थान दे सकते हैं।
यतो हस्तस्ततो दृष्टिर्यतो दृष्टिस्ततो मनः
यतो मनस्ततो भावो यतो भावस्ततो रस ॥ जसा नृत्य में हाथ जिस विषय का सूचन करता है, उसी विषय का सूचन दृष्टि भी करती है। दृष्टि जैसा ही सूचन मन भी करता है। मन जैसा भाव और भाव जैसा रस उत्पन्न होता है।
प्रास्येना लंबयेदगीत हस्तनार्थ प्रकल्पयेत्
चक्षुा न भवेदभावे पादाम्यां ताल निर्णय मुख से गीत का निर्णय होता है। हाथ से अर्थ-भाव की कल्पना होती है। दृष्टि से भाव की कल्पना होती है पैर पद से ताल का निर्णय होता है।
For Private And Personal Use Only