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अङ्ग : सप्तम्
शरीरमुद्रा (Position of Body)
प्रतिमा विधान में सबसे उत्कृष्ट तत्त्व अंगभंगी को माना गया है। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के अंगों के मरोड़ के पृथक्-पृथक अभिनय व्यक्त करनेवाली स्थिति को अंगभंग की संज्ञा दी गयी है।
शरीरमुद्रा १. समपाद-स्थानक
२. आभंग ३. त्रिभंग
४. अतिभंग ५. आलिढय
६. प्रत्यालिय ७. उत्कटिक
८. पर्यक ९. ललाट तिलक इनमें से प्रथम चार मुख्य शरीर मुद्रायें मानी जाती है, और बाकी की पांच मुद्रायें शिल्पशास्र में गौण मानी गयी है। 'विष्णु धर्मोत्तर' और 'समरांगण सूत्र' में शरीर मुद्रा के नव प्रकार कहे गये हैं। वे नृत्य और चित्रकला के लिये विशेष उपयोगी हैं। शरीरमुद्रा के लक्षण १ समपाद, स्थानकः
पांव से मस्तक तक एक सूत्र में खड़ो मूर्ति को समपाद कहते हैं। सूर्य, बुद्ध और जैन तीर्थंकरों की खड़ी मूर्तियों को कायोत्सर्ग मद्रा कहते हैं। २ आभंगः
मस्तक थोड़ा-सा झुका हुआ हो, और कटिप्रदेश थोड़ा-सा मुड़ा हुअा हो, उसे प्राभंग मुद्रा कहते हैं। बुद्ध की बोधिसत्व मूर्तियां और ऋषि-मुनियों की मूर्तियाँ ऐसे मोड़वाली (आभंग मुद्रायुक्त) होती हैं। जिन्होंने एक भंग या मोड़ लिया हो, वे सब मूर्तियां प्राभंगमुद्रा की कही जाती है। ३ त्रिभंगः
मस्तक, कटि और पैर-इन तीनों अंगों से बलखाती प्रतिमा को त्रिभंगी कहते हैं। विभंग से मूर्ति के सौंदर्य-लालित्य में उत्कृष्ट लावण्य व्यक्त होता है। उसे ललित त्रिभंग भी कहते हैं। अप्सराएँ, देवांगनाएँ, नृत्यांगनाएँ, और आलिंगनयुक्त प्रतिमाएँ त्रिभंगी होती है। दूसरे देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी ऐसी होती हैं। ४ अतिभंगः
जिन प्रतिमाओं के अंग तीन से ज्यादा मोड़वाले या बलखाये होते हैं, उन्हें 'अतिभंग' कहते हैं। मस्तक, शरीर, कटि, पाद और
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