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अङ्ग:प्रथम
मूर्तिपूजा (Idol Worship)
भारतीय शिल्प-स्थापत्य में प्रतिमाओं का विशेष प्राधान्य है। देव प्रासाद, देवमूर्तियों के कारणभूत माने जाते हैं। कई विद्वान मानते हैं कि वैदिक समय में मूर्तिपूजा नहीं थी। फिर भी उस जमाने में मूर्तिपूजा के कई प्रमाण तो मिलते ही है। दूसरे देशों का मूर्तिपूजा का समय और उनके साथ आर्य प्रजा के संबंध देखते हुए यह मानना चाहिए कि भारत में मूर्तिपूजा का अस्तित्व बहुत प्राचीन समय में भी था।
सबसे प्राचीन प्रजा-मध्य एशिया के पर्वतीय प्रदेशों में से पायी हुई-सुमेरियन प्रजा थी। उस समय के मानव देहधारी देवताओं के चित्र और मूर्तियों के उल्लेख भी मिलते हैं। उससे यह कल्पना की जा सकती है कि वहां मूर्तिपूजा का अस्तित्व रहा होगा। बेबिलोनिया भी प्रसेरिया जितना ही प्राचीन देश है। प्रसेरिया में से प्राप्त ईसा पूर्व चार हजार वर्ष के प्राचीन लेखों में से, मंदिरों में देवताओं का प्रतिष्ठान किये जाने के उल्लेख भी मिलते हैं। धर्म में मूर्तिपूजा शुरू हुई उससे पहले ही,स्वाभाविक क्रम से प्रतिमा बनाने की कला का विकास हुना होगा। असेरियन प्रजा का धर्म और संस्कृति बेबिलोनियन प्रजा के अनुकरण से जन्मे थे । सो, स्वाभाविक तौर से असेरिया में भी मूर्तिपूजा का अस्तित्व होना चाहिए। ई.स. पूर्व पंद्रह्वी शताब्दी में मेसोपोटेमिया से मिस्र में उनके इष्टदेव की मूर्ति भव्य समारंभ के साथ विधिपूर्वक लायी गई थी। यह घटना भी, मूर्तिकला का अस्तित्व उस समय में, उस देश में होने के प्रमाण देती है।
प्राचीन व्यवस्थान' (मोल्ड टेस्टामेंट : बाइबिल) में उल्लेख है कि पेलेस्टाइन में इजरायली लोग जावेद की प्रतिमा का ई. स. पूर्व आठवीं शताब्दी तक पूजन करते थे। चीन में भी ई.स. पूर्व १२ वीं शताब्दी में मूर्तिपूजा थी। अब वहां बौद्धधर्म प्रचलित है । ग्रीस के एजियन लोग भी मूर्तिपूजक थे ।
___ उसी तरह भारत में भी ई.स. पूर्व की बहुत प्राचीन काल से ही मूर्तिपूजा का अस्तित्व था। लेकिन उसके प्रारंभ के बारे में कई विद्वानों में मतभेद है। सिंध के मोहन-जो-दरो और हरप्पा के अवशेष से इसका काल निश्चित करने में सहायता मिलती है। सिंधु संस्कृति का अभ्यास करने से पता चलता है कि वे अवशेष ई.स. पूर्व २५०० वर्ष से भी प्राचीन होने चाहिए। परंतु, वैदिक संस्कृति के अवशेष ई.स. पूर्व पांचवी शताब्दी के पूर्व के नहीं मिले हैं। जब कि द्रविड संस्कृति का समय तो उससे भी प्राचीन माना जाता है।
मूर्तिपूजा के प्रमाणरूप सिंधु संस्कृति के काल में माता, शिवलिंग, शिवमूर्ति, योनि, वृक्ष आदि को पवित्न माना जाता था। उस काल में भी पत्थर, माटी और धातु की प्रतिमाएं तैयार की जाती थीं। ई.स. पूर्व ३५०-४०० की मौर्यकाल की एक जैन खंडित मूर्ति मिली है।
पतंजलि भाष्य (ई.स. पूर्व १५०) में देवताओं की मूर्तिों का उल्लेख है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि देवताओं के मंदिरों को निर्माण तो करना ही चाहिए। पाणिनी कहते हैं कि देव प्रतिमाएं बेचनी नहीं चाहिए, क्योंकि उससे कलाकृतियों का लोप होता है। महाभारत (ई.स. पूर्व २५०) के वनपर्व में भी मूर्तियों का उल्लेख है। अश्लायन गृह्य सूत्र में गृहदेवता और गृह-निर्माण पदार्थ (Building Materials) के उल्लेख है । अथर्ववेद के कौशिकारण्य में, शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में, तैत्तिरीय ब्राह्मण में और आरण्यक उपनिषद जैसे प्राचीन ग्रंथों में उसके उल्लेख प्राप्त है।
प्राचीन काल की प्रतिमाएं बहुत ही सुंदर, सौष्ठवयुक्त होती थीं। उस समय के भारतीय शिल्पकार प्रत्यक्ष मानव या प्राणी जैसी नैसर्गिक कलाकृति का सृजन करने का प्रयत्न करते थे। प्रतिमा निर्माण के लिये जरूरी धीरज और एकाग्रता से वे चलित नहीं होते थे। शिल्पग्रंथों और पागमग्रंथों में मूर्तिशास्त्र के अंग उपांगों के नियम भी दिये हुए हैं। कई कला-विवेचक मानते हैं कि शिल्पकार
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