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भारतीय शिल्पसंहिता
इंद्र के चार प्रासाद वापिका सहित होते हैं। भैरव और इंद्र प्रासाद के बीच दिलकुमारी के कूटपर्वत पर उनको रहने की देरी होती है। पाठ कूट उपरांत ईशान कोण में एक बलकूट विशेष होता है। ईशान में इंद्रभवन, पीछे बलकूट, पीछे विकुकुमारी का कुट, पीछे उत्तरे चैव ऐसा कम होता है। मेरगिरी पर्वताकार टेकरा गुफाओं, जल, जलप्ररणा वृक्ष, प्राणी इत्यादि होते है।
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समवसरण स्वरूप
तीर्थंकर प्रभु को जहाँ केवल ज्ञान प्राप्त होता है वह स्थान पर देवताओं समवसरण की रचना करते है। रचना दो प्रकार की होती है।
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समवसरण
चतुरस्त्र और वृत्ताकार तीन वर्तुलाकार । प्राकार वप्र-गढ - कील्ला-बनाते हैं । प्रथम निम्न प्रकार में वाहन, हस्ति अध, पालकी, विमान रहते हैं। ऊपर के दूसरे प्राकार में परस्पर विरोधी जीव सहोदर जैसे रहते हैं।
मूषक-विडाल सर्प मुकुल आदि ।
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