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भारतीय शिल्पसंहिता
ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण में कथा है कि कन्या के साथ गमनार्थ प्रजापति ने मृग का स्वरूप धारण किया और उसके पीछे दौड़ तब रुद्र ने पशुपति का रूप लेकर प्रजापति के पांचवें मुख का बाण से वध किया। इसलिये वे पशुपति के नाम से पहचाने जाते हैं।
त्रिपुर दाह कथानक में असुरों के तीन नगरों का नाश करके असुरों को रुद्र ने मार भगाया। ऐसी कथा संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में है। अथर्व वेद में रुद्र को अंधक घातिन का विशेषण दिया गया है। उसमें अंधकासुर के वध की कथा का बीज है।।
वेदों की रचना के काल के पहले शिवपूजा होती थी। प्रागैतिहासिक काल में शिव का स्वरूप निरंजन-निराकार था, वे स्मशान में रहते और वहाँकी भस्म शरीर पर लगाते थे। मुंडमाला धारण किये,खोपड़ी में भिक्षा ग्रहण करके भूत-प्रेतादि के संग रहते थे। सपों को अलंकार के रूप में धारण किये ये शिवजी महायोगी से भी बढ़कर थे। उनके ऐसे आचार से अनार्यों ने उनको देव के रूप में स्वीकार किया। बाद में द्रविड़ संस्कृति में भी उनको स्वीकार किया गया । आर्य और अनार्य के घोर विरोध के बावजूद रुद्र के इन्हीं त्यागमय गुणों के कारण पार्यों ने भी रुद्र को स्वीकार किया है।
पश्चिम के कई लोग शिवजी को गंदे देव कहते हैं। लेकिन वे अल्पज्ञ और अज्ञानी लोग रुद्र के स्वरूप को ठीक समझ नहीं सके। हमारे देवदेवियाँ कई गुणों के प्रतीक समझे जाते हैं । रुद्र भी इसी प्रकार के देव है : त्यागी, निर्लोभी, निर्लेप ।
अपनी निस्वार्थ वृत्ति एवं भोलेपन के कारण ही वे महादेव कहलाते हैं।
देव हो या दैत्य भक्ति से प्रसन्न होकर, वरदान देते समय शंकर को जगत बराबर लगता था। समुद्रमंथन से निकाला हुआ हलाहल विष कौन पीये? जगत के भले के लिये इस हलाहल विष का पान करके वे नीलकंठ बने।
__ रुद्र-शिव के प्रतीक लिंग की पूजा, मूर्ति-पूजा के प्रारंभ काल की पूजा है। तब निरंजन निराकार की पूजा के लिए लिंग-पूजा का प्रारंभ हुआ। सृष्टि सर्जन में प्रजोत्पत्ति आवश्यक होने की वजह से प्रकृति और पुरुष की मान्यता पैदा हुई। प्रकृति माया तथा स्त्री-योनी है। मध्यएशिया में प्रकृति और पुरुष को आदम और हवा के नाम से पूजा जाता था। एशिया और योरप में यह पूजा प्रचलित थी।
योरप के कई देशों में पंद्रहवीं सदी तक यह प्रथा प्रचलित थी। इसीलिये वहाँ लिंग के अवशेष मिलते हैं। इंग्लंन्ड, फ्रांस, इटली, नोर्वे प्रादि देशों में और अमेरिका के मेक्सिको में लिंगपूजा के प्राचीन अवशेष मिलते हैं।
(सजीव) सृष्टि योनि और लिंग के सहयोग से ही उत्पन्न होती है। जगत के उत्पत्तिकर्ता का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक सयोनि-लिंग है। इसीलिये कर्ता का सर्वश्रेष्ठ प्रतीकपीठिका युक्त शिवलिंग की पूजा बिना झिझक होने लगी। इस प्रकार लिंगपूजा का प्रारंभ हुआ।
लेकिन वैष्णव संप्रदाय में मर्यादा के कारण लिंग की जगह शालिग्राम को दी गई। फिर भी वह लिंगपूजा इतनी व्यापक नहीं हुई क्यों कि शैव संप्रदाय के प्राचरण में सरलता बहुत है लेकिन वैष्णव संप्रदाय के प्राचार बहुत ही कठोर हैं।
शिव के भक्त वर्ग में बहुत से विद्वान हुए। इन भक्त गणों में पाशुपत, लकुलिश, कापालिक, कालमुख, वीर शैव, आदि हुए। वे तत्त्वज्ञानी और ग्रंथकार थे। लकुलिश शिव का २८ में अवतार मनाते है।
शिवपूजा के दो प्रकार हैं । व्यक्त और अब्यक्त । व्यक्त -- शिवमूर्ति और अव्यक्त -शिवलिंग। भारत में सभी जगह ये दो प्रकार प्रचलित हैं । लेकिन द्रविड़ में शिवपूजा का प्रचार विशेष है। तीसरा प्रकार है, व्यक्ताव्यक्त । लिंग और तीन या पाँच मुख की पूजा को व्यक्ताव्यक्त प्रकार कहते हैं।
प्रथम प्रकार : व्यक्त : शिव के भिन्न भिन्न स्वरूप कहे गये हैं। मूर्ति के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। उनकी मूर्ति को चार, छः, पाठ, दस, बारह या विशेष भुजायुक्त भी बताया गया है। विशेष भुजानों के एकादश और द्वादश स्वरूप कहे गये है। सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान, इन पंचमुखों के अलावा मृत्युंजय, विजय, किरणाक्ष, अघोराक्ष, श्रीकंठ, महादेव, सदाशिव आदि नाम भी मिलते हैं। द्रविड़ में शिव की प्रासंगिक लीलाओं पर से अठारा स्वरूप बनाया हैं।
सुखासन, सोमस्कंध, चंद्रशेखर, वृषारूढ नृत्यमूर्ति, गंगाधर, त्रिपुरान्तक, कल्याणमूर्ति, अर्धनारीश्वर, भघ्नमूर्ति पाशुपत, कंकाल, हरिहर, भिक्षाटन, गणेशानुग्रह, दक्षिणामूर्ति कालारि, लिंगोदव, श्रीपंचाश्रीपंचाधर ललाट तिलक, आदि की द्रविड़ प्रदेश में मूर्तियाँ पूजी जाती है। दूसरा प्रकार : अव्यक्त-लिंग
अव्यक्त, वैसे तो लिंग स्वरूप में व्यक्त ही है, पर उसका स्वरूप निराधार-लंबगोल होने से उसे दूसरे प्रकार में लिया गया है। भारत की पवित्र नदियों में लिंग मिलते हैं। हरद्वार में गंगा, और गंडकी, नर्मदा प्रभास आदि में भी मिलते हैं। इन पवित्र नदियों में हजारों साल से बहते बहते स्वाभाविक रूप से वे लंबगोल बन जाते हैं। शिल्पशास्त्रों में ऐसे हजारो लिंगो में से उनकी परीक्षा करके बाण लिंग ग्रहण करने का आदेश है।
अमुक वर्ण का और उसमें अमुक प्रकार के रंग के छिटके-टिपकेवाला कुकुट के अंडे के आकार का बाणलिंग शुभ माना जाता है। शेष अशुभ माने जाते हैं।
शुभ लक्षण वाले बाणलिंग की परीक्षा इस प्रकार की जाती है। लिंग का एक बार वजन करके दूसरी और तीसरी बार भी वजन
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