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இடர்த
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प्रामुख
लकुलेश की मूर्ति होती है, उस मूर्ति के सिर पर चारों ओर फैली हुई अस्तव्यस्त जटा, एक हाथ में मातुलिका (फल) दूसरे हाथ में दण्ड और गोद में ऊर्ध्वलिंग बताया गया है। ये सारे प्रकार व्यक्ताव्यक्त लिंग के हैं। शिव के और जो बारह स्वरूप हैं और अन्य भी कुछ स्वरूप मिलते हैं, वे शिव, विष्णु और ब्रह्मा के संयुक्त स्वरूप हैं ।
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शिव तांडव
व्यक्त प्रकारों में उत्तर भारत में शिव रुद्र की मूर्तियों के बारह स्वरूप मिलते हैं । जब कि द्रविड़ में शिव रुद्र के अठारह स्वरूप दिखाई देते हैं । लिंगोद्भव, भिक्षाटन, नटराज, अर्धनारीश्वर आदि जो स्वरूप हैं वे कथानक के प्रासंगिक स्वरूप कहे हैं। शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य मौर चन्द्र के संयुक्त मिलेजुले करीब दस स्वरूप हैं। उमामहेश, शिशुपाल के साथ, त्रिपुरान्तक, अघोरेश्वर, त्रिपुरादाहशिव, पंचवक्त्र शिव, दक्षिणामूर्ति, ललाटतिलक आदि भव्य मूर्तियाँ भी मिलती हैं। भैरव और क्षेत्रपाल के स्वरूप भी शिव के स्वरूपों में समाविष्ट हो जाते हैं ।
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ब्रह्मा
वैदिक साहित्य में ब्रह्मा को ष्टिनिर्माण के कर्ता के रूप में बताया है, विश्वकर्मा को सृष्टिकर्ता माना है। विश्वकर्मा सूर्यदेव का ही स्वरूपविशेष है । विश्वकर्मा ही सृष्टि के उत्पादक हैं। वेद में एक सूक्त के मंत्र में प्रजापति शब्द है। यह सूक्त सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में लिखा गया है। उसमें प्रजापति ने सारी सृष्टि का सर्जन किया है ऐसा विधान है।
ऋग्वेद के सूक्त में एकबार ईश्वरवाचक हिरण्यगर्भ शब्द आया है। अथर्ववेद और ब्राह्मणग्रन्थों में बारबार इस शब्द का प्रयोग मिलता हैं, तैत्तिरीय संहिता में हिरण्यगर्भ और प्रजापति एक ही बताया गया है, वेदों के पिछले वाङमय में हिरण्यगर्भ शब्द ब्रह्मा का पर्यायवाचकही है।