SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमुखः प्रतीकोपासना के पहले लोग स्रजन-पूजन के द्वारा भगवद्भक्ति करते थे। ऐसा वेद और ब्राह्मण के ग्रन्थों में बताई गई यज्ञीय क्रियाओं में जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे मालूम पड़ता है। इस प्रकार वेदकाल के बाद, यज्ञरूप में प्रचलित भक्तिमार्ग देवप्रतीकों की उपासना में परिणत हो गया। वेदसूक्तों में वर्णित देवताओं के स्वरूप के अनुसार पाषाण अथवा धातुद्रव्यों के द्वारा देवताओं के साकारस्वरूप निर्मित हुए और उनकी पूजा प्रचलित हुई । ___साकार प्रतिमाओं का ध्यान करते करते मनुष्य प्रभु के निराकार निरंजन स्वरूप को प्राप्त करता है और अन्त में प्रयत्न के द्वारा प्रात्मानुग्रह की सिद्धि पाता है, इसलिये प्रतिमा का आवाहन पूजन आदि करना आवश्यक है। मूर्तिपूजा से पूजक की मनःशुद्धि होती है, उसको आत्मसन्तोष भी मिलता है। अनन्यभाव से प्रभु का आवाहन-पूजन करके उसमें तन्मय होनेवाले भक्त पर भगवान प्रसन्न होते हैं और वे भक्तों की कामना पूरी करते हैं। ऐसी मान्यता प्रचलित होने से मूर्तिपूजा का प्रचार हुआ। वेद भारत का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद आदि में देवताओं के नामों का उल्लेख मिलता है, शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता में और कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में यज्ञयागादि प्रसंगों पर सुवर्णप्रतिमा की स्थापना के बारे में विधान मिलता है, देवप्रतिमा के साथ साथ देवालय (मन्दिर) निर्माण का उल्लेख अथर्ववेद में है। द्योत और गृह्यसूत्रों में प्रतिमाओं और उनके पूजन के विषय में विशेष चर्चा मिलती है। सूत्रकाल में मूर्तिपूजा का विशेष प्रचार एवं प्रसार हुआ है। बोधायन गृह्यसूत्रों में देवों के पूजन-अर्चन के बारे में विस्तारपूर्वक चिंतन किया गया है। शिव भारत और पूर्वीय देशों में शिव-रुद्र की उपासना का विशेष माहात्म्य है। शिव-रुद्र के स्वरूपवर्णन में ऋग्वेद कहता है कि 'उनके अवयव मजबूत हैं, उनके होंठ सुन्दर हैं, धुंधला पीला चमकीला रूप है, सुवर्ण के अलंकार वे पहनते हैं और रथ में सवारी करते हैं'। .. दूसरे वेदों में इससे भिन्न-बिल्कुल अलग वर्णन इस प्रकार मिलता हैः शिव-रुद्र का पेट श्याम है, पीठ लाल है, कण्ठ नील-हरा है, शरीर का रंग लाल है, वे चमड़ा प्रोढ़ते हैं, पर्वत पर रहते हैं, धनुष्यबाण धारण करते हैं, कभी कभी वे वज्र भी धारण करते हैं, अपने पास मांसभक्षी कुत्ते रखते हैं । अथर्ववेद की वाजसनेय संहिता में यह वर्णन मिलता है। वेदों की संहितामों में शिव का त्र्यम्बक नाम मिलता है। उसका अर्थ है तीन आँखोंवाला। पृथ्वी, अन्तरीक्ष और पाताल ये तीन उनकी आँखें हैं । रुद्र के लिये अग्नि नाम भी मिलता है। अथर्ववेद में भव, शर्व, पशुपति, उग्र, रुद्र, महादेव, ईश आदि शिव के नाम मिलते हैं, वेदों में शिव के लिये पशुपति नाम बारबार आता है। उनकी प्रार्थना करने से रोग और भय से मुक्ति मिलती है और कल्याण होता है। अथर्ववेद में शिव को 'अन्धकघातक' और अन्य वेदों में 'त्रिपुराघातक' कहा है। संकटकाल में रुद्र का ध्यान करने से संकट से मुक्ति हो जाती है। शिवजी स्मशान में रहते हैं, वहाँ की भस्म अपनी देह पर लगाते हैं, मुण्डमाला धारण करते हैं, कपालपात्र में भिक्षा मांगते हैं, कुत्ते पास में रखते हैं, चमड़ा पहनते हैं, साँप का अलंकार धारण करते हैं, इस प्रकार के शिव-रुद्र के प्राचार कहे हैं, इसीलिये ये अनार्यों के देव हैं ऐसा कुछ विद्वान कहते हैं। वे पीछे से आर्यों के देव माने गये और पहले जो रुद्र थे वे पीछे से शिव गिने गये। निरंजन निराकार लिंग स्वरूप की पूजा जगत के प्रत्येक भाग में होती होगी। यूरोप के एवं एशिया के देशों में कई जगह शिवजी के योनिलिंगस्वरूप के अवशेष मिले हैं। सारी सजीव सृष्टि योनि और लिंग के संयोग से पैदा होने के कारण वह स्वरूप सृष्टि का आदिकरण माना जाता है। इसी भावना से उसकी पूजा भी होती है। प्रजोत्पत्ति के लिये इन दोनों की इकाई जरूरी है, जगत के मूल में पुरुष और प्रकृति For Private And Personal Use Only
SR No.020123
Book TitleBharatiya Shilpsamhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherSomaiya Publications
Publication Year1975
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy