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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र कुछ कलिंग-लिपि से । इसलिए संभवत: ये ई. पू. दूसरी शती के हैं। स्त० XX के अक्षर ई. पू. प्रथम शती के होंगे, क्योंकि इनमें अ, आ, (1, 2) की खड़ी लकीरों के निचले हिस्से बढ़ गये हैं ; अ (37) की पीठ चौड़ी हो गई है, ळ (41) का रूप घसीट वाला है, और द्र (42) में र बाएँ को मुड़ गया है और ये सब लक्षण इन्हें बाद की रचना बतलाते हैं।
ऊपर (16, अ) में इस बात की चर्चा की गई है कि इस काल के अक्षरों में खड़ी रेखाओं का ऊपरी हिस्सा छोटा होने लगता है। यह प्रवृत्ति इन चारों लिपियों में समान रूप से वर्तमान है। कुछ फुटकल उदाहरण ही ऐसे हैं जिनमें यह प्रवृत्ति नहीं मिलती। अक्षरों का चौड़ा होना, या ग, त, प, भ, य, ल, स और ह के निचले भागों का चौड़ा होना ऐसी विशेषताएं हैं जो केवल अंतिम लिपियों में ही मिलती हैं । ऊपरी खड़ी लकीरों के सिरों का मोटा होना, और तथाकथित शोशों का इस्तेमाल केवल शुग और कलिंग लिपियों की विशिष्टताएं हैं। जिस में बाद की लिपियों का विकास हुआ, उनकी प्रवृत्तियों के दर्शन केवल स्त. XX के अक्षरों में ही नहीं होते, अपितु गोले ड (20, XXII, XXIII) में, जो दक्षिणी शैली की प्रमुख विशेषता है, अ में, जिसमें ऊपर की आड़ी रेखा में भंग है (22, XVIII, XIX), अंशतः वा पूर्णतः कोणीय म में (32, XIX, XXII); की (9, XXII), बी (30, XXII), और वी (36, XXIV) की अर्धवृत्तीय ई की मात्रा में, और गो (11, XXIV), ठो (19, XXIV), और थो (24, XXIV) की ओ की मात्रा में भी जो अलग से लगी है, इसके बीज वर्तमान है। पौ (28, XVIII) में फलक की एकमात्र औ की मात्रा मिलती है जो भी ध्यान देने लायक है।
__ जहाँ तक इन शैलियों के भौगोलिक विस्तार का प्रश्न है लहुरी मौर्य लिपि केवल उत्तर-पूर्व (बिहार) की ही नहीं है, अपितु उत्तर-पश्चिम में भी चली गई है। इसके ज और ष अक्षर दो इंडो-ग्रीक राजाओं के सिक्कों पर भी मिलते हैं जिसकी चर्चा (ऊपर 15, 4) में हो चुकी है। कलिंग लिपि तो दक्षिणी-पूर्वी तट की है और नानाघाट के अभिलेखों की शैली दक्षिणी-पश्चिमी है। शंग शैली संभवतः मध्य देश की लिपि की प्रतिनिधि है। किंतु इसका विस्तार पश्चिम में भी हुआ है क्योंकि वैसे ही या उससे बहुत मिलते-जुलते अक्षर महाराष्ट्र प्रदेश की गुफाओं म भी मिलते हैं । दे. 15, 5, टिप्पणी 153 ।
इन लिपियों का प्रयोग कब से कब तक रहा, यह बतलाना मुश्किल है। इंडो-ग्रीक सिक्कों से पता चलता है कि लहुरे मौर्य अक्षर ई. पू. दूसरी शती के
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