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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय पुरालिपि-शास्त्र आधार क्या है। मेरा निश्चित मत है कि मूलतः इसका मूल्य ष था। इसमें कोई शक नहीं कि यह ऊष्म ध्वनि की अभिव्यक्ति करता है और द्राविड़ी का आविष्कार भी ब्राह्मी की भाँति संस्कृत लेखन के लिए ही हुआ था (दे. 6, इ, 2)। संस्कृत की तीन ऊष्म ध्वनियों में हम तालव्य (37, XIII, XIV) और दंत्य (39, XIII, XIV, XV) को आसानी से पहचान सकते हैं । इसलिए तीसरा चिह्न केवल मूर्धन्य ष के लिए होगा। यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है कि भट्रिप्रोल के प्राकृत के अभिलेखों में-जहाँ यह चिह्न मिलता है, मुर्धन्य ऊष्म ध्वनि का उच्चारण भी होता था या नहीं, या कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह चिह्न क्लर्कों ने श या स के उच्चारण के लिए ही प्रमादवश लिख दिया । वर्तमान में तो इस समस्या का कोई निश्चित समाधान नहीं दिया जा सकता । यदि कृष्णा जिले की प्राचीन प्राकृत के बारे में हमें कुछ और ज्ञान होता तो शायद हम इसका उत्तर दे सकते थे। किंतु शमणुदेसानं (भट्टिप्रोलु, सं. X) में श के सही प्रयोग से यही पता चलता है कि इस विभाषा में दो ऊष्म ध्वनियाँ अवश्य थीं। इसलिए संदेह केवल यही हो सकता है कि कहीं श के लिए ही तो ष नहीं लिख दिया गया है, मथुरा के जैन अभिलेखों में बहुधा ऐसा मिलता भी है (मिला. ए. ई. I. 376) या यह मूर्धन्य ऊष्म ध्वनि ही तो नहीं है ? द्रविड़ी की प्रकृति के बारे में एक बात का उल्लेख विशेषण करना जरूरी है। वह यह है कि कई बार इसके चिह्नों में--जो ब्राह्मी से मिलते-जुलते हैं-दक्षिणी शैली की विशिष्टताओं के दर्शन होते हैं । इसे हम निम्नलिखित में देख सकते हैं : (1) कोणीय अ, आ; (2) ख (10, XIII, XV), गिरनार की तरह इसमें केवल खड़ी लकीर है, जिसके सिर पर एक हुक लगा है; (3) ध, जिसका स्थान वही है जो जौगड़ के पृथक आदेशलेखों या नानाघाट के अभिलेखों में ध का है; (4) म, जिसे यद्यपि सिर के बल उलट तो दिया गया है, पर वह गिरनार के म के कोण को सुरक्षित रखे है; और (5) स में, जिसका पाांग गिरनार की भाँति सीधा है। पत्थर के वर्तनों के साथ मिलने वाले क्रिस्टल प्रिज्म पर खोदे इस लेख में (सं. X) सामान्य ब्राह्मी ही मिलती है (अपवाद केवल द है जो दायें को खुलता है)। इससे निष्कर्ष निकलता है कि कृष्णा जिले में भी एकमात्र द्राविड़ी का ही इस्तेमाल नहीं होता था, बल्कि सामान्य पुरानी भारतीय लिपि के साथ-साथ इसका भी प्रयोग होता था। अब तक मिले अभिलेखों की संख्या बहुत थोड़ी है। इसलिए निश्चित रूप से यह बतलाना असंभव है कि इस लिपि का विस्तार कहां तक था। इसी तरह इसके प्रयोग का समय और उसकी अवधि निर्धारित करना भी कठिन है। कुबीरक या खुबीरक (कुबेर) नामक राजा का पता किसी दूसरे 78 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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