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प्राविड़ी-लिपि
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XI, XII; 44, III-VII, XI, XII; 45 IV, V, X), भरहुत और घसुंडी (42, 43, XVI) में सामान्यतया संयुक्ताक्षरों में दोनों व्यंजन अपने प्रकृत क्रम से एक-दूसरे के नीचे रख दिये जाते हैं और इनमें कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं होता। किन्तु कभी-कभी, जैसे क्या (42, II, IV), क्ये (42, III), ग्या (42, VI), ग्ये (42, VII) में एक ही खड़ी रेखा दोनों अक्षरों में उभयनिष्ठ होती है। आजकल भी यह प्रणाली प्रचलित है, जैसे, क्व, क्त आदि में। ऊपर 11, इ, 3 के खरोष्ठी संयुक्ताक्षरों से मिलाइए।
2. किंतु इससे बड़ी अनियमितताओं के भी उदाहरण हैं, खासकर गिरनार में, जहां (क) दूसरे चिह्न का कभी-कभी काफी अंग-भंग हो जाता है या उसे खूब घसीटकर लिखते हैं, जैसे व्य (44, II), म्य (44, VIII), स्टि और स्तु (45, VIII, IX) में; (ख) सहूलियत के लिए163 कभी-कभी दूसरा चिह्न पहले रख देते हैं (गिरनार और शिद्दापुर), जैसे, रता, स्टि (42, VIII, IX), त्प, त्पा ( 43, IX,X), व्या (44, X?); और (ग) र से बनने वाले संयुक्ताक्षरों में र का चिह्न या तो दूसरे अक्षर की खड़ी लकीर में जुड़ता है (गिरनार और शिद्दापुर दोनों में), जैसे ऋ (9, X); त्रं (23, X); द्र (25, XII); ब (30-X); व (36, x); (39, X); में; या (केवल गिरनार में) संयुक्त चिह्न के सिर पर एक छोटे-से हुक के रूप में जुड़ता है, जैसे, त्रै (23, IX) प्र, प्रा (28, IX, X) आदि में। र का उच्चारण हे व्यंजन के पहले हो या बाद में इसका स्थान हमशा वही रहता है । इस प्रकार 36, X को र्व और व दोनों पढ़ा जा सकता है। ब्र (30, X) में र ब के बायें की खड़ी लकीर में लगा है। यह प्रणाली शायद तब से चली आ रही है जब दायें से बायें को लिखते थे। नहीं तो इसे दायें की खड़ी पाई में लगना चाहिए था।
17 भट्रिप्रोल की द्राविड़ी: फलक I भट्टिप्रोलु की द्राविड़ी का भारतीय लेखनकला के इतिहास में क्या मूल्य है यह मैं बता चुका हूं। दे. पृष्ठ १४। इसके विलक्षण चिह्नों का खुलासा भी मैं दे चुका हूं ( ऊपर 6, अ, 3, 7, 12, 15, 18; आ 5, इ5; और इ, 2) अब हम यह बतलायेंगे कि फलक II, 38, XIII--XV के हमारे पाठ का
_163. ओ फेंके गुरुपुजाकौमुदी का विचार है कि इन्हें टुसा, ट्स्ट पढ़ना चाहिए जैसा ये लिखे गये हैं।
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