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मौर्य-लिपि
(25) गोलाईदार स्त. II, III के प्राथमिक रूप से द के दो रूप निकले हैं : (क) स्त. IV, V (दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-शिवालिक, प्रयाग, कोसांबी आदेशलेख, और प्रयाग का रानी का आदेशलेख) का कोणीय रूप और (ख) स्त. VII, IX (गिरनार, जौगड़ आदि, दुर्लभ ही) का घसीट रूप।।
(26) स्त. V-VII का ध का रूप ही मूल रूप है। यह दिल्ली-शिवालिक (दुर्लभ ही) और जौगड़ के पृथक् आदेशलेखों में (निरंतर) मिलता है।
(28, 29) प और फ स्त. XII और VI के कोणीय रूप अनेक पाठों में यत्र-तत्र मिल जाता है।
(30) पृ. २३ की तुलनात्मक तालिका के सं. 2, v, a वाला ब का रूप कालसी और अन्य पाठों में दुर्लभ नहीं है।
(31) भ के स्त. XVI का दाईं ओर सीधी लकीर वाला और स्त. VI (जौगड़ के पृथक आदेशलेख) के गोली पीठ वाला माध्यमिक रूप भरहुत (निरंतर), साँची (प्रायः) बराबर और कालसी में भी मिलते हैं।
(32) म का वह रूप जिसमें सिर पर एक अर्ध-वृत्त बनता है माध्यमिक है। यह सोहगौरा ताम्र-पट्ट के अलावा उत्तरी अभिलेखों में सर्वत्र मिलता है । सोहगौरा के म में खुला सम चतुर्भुज है। यह शिद्दापुर स्त. XI, XII के म की तरह है। म के जिस प्राचीनता रूप में वृत्त के ऊपर कोण बनता था, स्त. VIII-X, वह दक्षिणी रूप है। यह रूप गिरनार (केवल यहीं) और धौली और जौगड़ (बिरले ही ) तक सीमित है।
(33) स्त. IV, V, VII, XI का खाँचेदार य या तो निरंतर या मुख्य रूप में दिल्ली-शिवालिक, दिल्ली-मेरठ, मथिया, रधिया, रामपूरवा निग्लीव, पड़ेरिया, और कालसी में मिलता है। किंतु गिरनार में य का वही रूप सामान्य है जिसमें नीचे एक भंग है, स्त०. VIII, X, XI, इस के अलावा स्त. IX का कोणीय रूप भी कभी-कभी मिलता है। खाँचेदार य लिखने के लिए पहले बाईं ओर का आधा बनाते हैं फिर दाईं ओर का आधा जोड़ते हैं। नीचे भंग वाला य लिखने में खड़ी रेखा और भंग अलग-अलग बनाते हैं। यह बात शिद्दापुर के आदेशलेख सं. 1 की पंक्ति 4 के इयं में देखी जा सकती है।
(34) पृ. २३ की तुलनात्मक तालिका के सं. 20, V, a और के र के रूप भी देखिए। घसुंडी स्त. XVI में कार्क के स्क्रू की तरह का र और रूपनाथ (स्त. VII, VIII के बीच) का तृतीयक, लगभग सरल रेखा-सा र दोनों इसी अक्षर के उत्तरी घसीट रूप मालूम पड़ते हैं। (35) स्त. III, V का कोणीय ल अधिकांश पाठों में क्वचित् मिलता
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