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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
( 11 ) ग के मूल रूप में सिरा नोकदार था, पर कभी-कभी यह अक्षर गोलाईदार भी मिलता है, स्त. IV, VI, X-XII |
(12) घ का भी मूल रूप कोणीय था । यह कभी-कभी कालसी ( स्व. III ) और जौगड़ के पृथक् आदेशलेखों में मिलता है । यहीं मैं कारीगरों की गया की वर्णमाला से ङ का भी उल्लेख करना चाहता हूँ । यह खोज तब हुई जबकि इस पुस्तक के फलक बन चुके थे। इंडियन स्टडीज III, 2, पृष्ठ 31, 76 से तुलना कीजिए ।
(13) दुमदार प्राथमिक (दे. ऊपर 4, अ, 269 और 284 (ए. इ. II, 368 ) में भी मिलता है ।
( 14 ) दो असमान अद्धों वाला स्त. VI, VII का छ का इसका प्राथमिक रूप है । यह पहले एक वृत्त बन जाता है जिसे खड़ी रेखा बीच से काटती है, स्त. III, IV । इसीसे बाद का स्त. II और गया की वर्णमाला का रूप बनता है, जिसमें दो फंदे लगते हैं । यही इसका सामान्य रूप है ।
( 15 ) ज के जितने भी रूप हैं वे द्राविड़ी ज (स्त XIII--XVI) से निकले हैं । इन्हें दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं; (अ) मूलत: उत्तरी रूप; जिसमें एक फंदा लगा है, यह रूप स्त. III ( कालसी और मथिया) में है; या जिसमें एक बिंदी लगी है, स्त. IV, V (प्रयाग, दिल्ली - शिवालिक, दिल्ली-मेरठ, बैराट सं. 1, निग्लीव, पड़ेरिया, धौली, जौगड़ और शिद्दापुर ) ; या जिसमें मध्य में एक लकीर है, स्त. II ( कालसी, जौगड़ पृथक् आदेशलेख, सहसराम और रूपनाथ), और ( आ ) दक्षिणी रूप, स्त. VIII, X, XI, XVI ( गिरनार, धौली, जौगड़, और घसुंडी) और स्त. IX ( गिरनार में ) ।
(18) अधवृत्ताकार ट के अलावा अक्सर ही ऐसे रूप मिलते हैं जिनमें ऊपरी या निचला या दोनों भाग चिपटे हो गये हैं, जैसे स्त. II, XI, XVI में ।
( 20 ) स्त. III की गोली पीठ वाले ड की तुलना प्रयाग के रानी के आदेशलेख की पंक्ति 3 के डि के रूप से भी कीजिए ।
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18 ) साँची स्तूप I, सं.
IV, V, XVI और स्त. VI और 43, स्त.
( 23 ) स्त. III और 43, III (तु) के प्रारंभिक त से जिसे अक्सर बगल से घुमा देते हैं ( पृ० २३, V, b की तुलनात्मक तालिका देखिए ) दो रूप निकलते हैं : ( क ) स्त. II (ति) वाला रूप जिसमें पावग गोला है; ( ख ) स्त. XI का तका रूप जिसमें खड़ी रेखा के ठीक नीचे कोण होता है । इसी से स्त XII का वह तृतीयक रूप भी निकला प्रतीत होता है, जिसमें कोण के बदले अर्धवृत्त है । यह रूप बाद में बहुत प्रचलित हुआ ।