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मौर्य-लिपि
बाद में (दे० फलक. VI, 4, V, VII) चतुर्भुज के कोण ऊपर और नीचे की रेखा की ओर हो जाते हैं।
(5, 6) हुल्श (त्सा. डे. मो. गे. XL, 71) स्वीकार करते हैं कि सं. 6. XVIII का चिह्न ऊ की भाँति लगता है पर वे इसे ओ पढ़ना ही पसंद करते हैं। इसका जो भाषाशास्त्रीय कारण वे देते हैं। ई. मूलर (Simplified Pali Grammer पृ. 12 तथा आगे) उसे अनावश्यक मानते हैं। ई. पू. तीसरी शती में ऊ के होने का अनुमान कारीगरों की गया की वर्णमाला से होता है ।
(7) ऊार पृ. २३ पर एक तुलनात्मक तालिका दी है। इसमें संख्या 16, v, b ए है। इसके अलावा भी घोड़े की नाल की शक्ल का एक एहोता है (कालसी आदेशलेख V, 16 आदि) । स्त. XXII का ए आधा गोल है। यह रूप साँची स्तूप 1, सं. 173 में भी मिलता है । स्त. XXI पर ऐ है कारीगरों की गया वर्णमाला से अनुमान होता है कि ई. पू. तीसरी शती में यह वर्ण था। धौली और जौगड़ के स्तं. VI के ओ के लिए ऊपर 4, आ, 4, a (क) देखिए।
(9) छुरे के आकार वाला क अशोक के आदेशलेखों के सभी पाठों में बहुधा, पर गिरनार में बिरले ही मिलता है ।
(10) ख के सात रूप मिलते हैं। इनमें स्त. II (कालसी) और स्त. VI (जौगड़ के पृथक् आदेशलेखों और भरहुत स्तूप के अभिलेखों ) का रूप सबसे पुराना है। इससे सबसे पहले स्त. III (कालसी और भरहुत) का उत्तरी ख निकला जिसमें दाईं ओर एक फंदा है। साथ ही एक रूप और भी निकला जो स्त. XVIII के समान ही है। यह जौगड़ पृथक् आदेशलेख I, 1, 4 में मिलता है। इसके बाद ख का स्त. IV, V का वह रूप निकला जिसमें एक झुकी खड़ी लकीर और उसके नीचे एक बिंदी मिलती है। ख्य सं. 43, V के ख में नीचे एक त्रिभुज है। इसकी उत्पत्ति भी उत्तरी है। इसे महाबोधि-गया फलक 10 सं. 3 से और भरहुत से मिलाइए । स्त. III के प्राथमिक रूप से ही ख का एक और रूप निकला जो स्त. VII, IX-XII में मिलता है। इसमें खड़ी लकीर एकदम सीधी है और उसके नीचे एक बिंदी लगी है। यह गिरनार, शिद्दापुर, धौली और जौगड़ की दक्षिणी तथा प्रयाग, दिल्ली, मेरठ, मथिया, रधिया, रामपूरवा और बैराट सं 1 की उत्तरी, दोनों शैलियों में मिलता है । स्त. VIII के ख में एक सादा हुक लगा है। बिंदी नहीं है। यह रूप दक्षिणी शैली में ही मिलता है, खासकर गिरनार में बहुत मिलता है ।
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