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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
कालसी के चट्टान आदेशलेखों की एकदम विशिष्ट और इनसे एकदम भिन्न लेखन शैली है। इनके कुछ अक्षर अगाथोक्लीज और पैटालियन के सिक्कों के कुछ अक्षरों से मिलते-जुलते हैं (किंतु जौगड़ के आदेशलेखों के अक्षर भी इनसे मिलते हैं ) । इस प्रकार कह सकते हैं कि पुरानी मौर्य लिपि का एक उत्तरीपश्चिमी विभेद भी था ।161
इ. मात्रिकाएं अशोक के आदेशलेखों में ही खड़ी लकीर वाले अक्षरों में यदा-कदा लकीर मोटी होने लगती है या ऊपरी हिस्से में शोशे लगने लगते हैं, जैसे छ (फलक. II, 14,II), प (28, VII) में । ए ई. II, 448 और ब., आ. स. रि. सा. इं. 1, 115 में दिये गये उदाहरणों से तुलना कीजिए।
. (1, 2.)162 ऊपर पृ. १३ पर अ आ के जो 8 रूप दिये गये हैं, उनके अलावा एक नवाँ रूप भी फलक के स्तंभ XI में हैं। इसके ऊपरी हिस्से में एक खुला समचतुर्भुज है (मिला० म, 32, XI, XII)। दसवाँ रूप शिद्दापुर आदेशलेखों में मिलता है। यहां के आदेश-लेख 1, पंक्ति 2, 3 के अ में कोण खड़ी लकीर से अलग है। स्त. VII, XI के अ के रूपों में खड़ी लकीर झुकी हुई है। ऊपर और नीचे के हिस्से अलग-अलग लिखने की वजह से ऐसा हुआ है। खड़ी लकीर में ऊपर दाईं ओर स्वर की लंबाई जताने के लिए एक नन्ही-सी लकीर बना देना गिरनार (स्त. VIII, IX) की विशिष्टता है ।
(3.) इ के स्त. III, IV वाले रूप ही सामान्य रूप हैं । स्त. X का रूप जो गुप्तकालीन और बाद के रूपों से मिलता है, दुर्लभ रूप है। .. (4.) ई अक्षर बिरले ही मिलता है। गया में कारीगरों ने जो वर्णमाला खोदी है उससे अनुमान होता है कि ई. पू. तीसरी शती में यह अक्षर वर्तमान था। यह महाबोधि गया के अभिलेखों (फलक. 10. सं. 9, 10) में भी मिलता है । इसे कनिंघम ने इं पढ़ा है क्योंकि यह अक्षर संस्कृत के इन्द्र की अभिव्यक्ति के प्रसंग में आया है । यद्यपि यह पाठ भी हो सकता है पर मैं इसे असंभव मानता हूं क्योंकि तब हमें इ के एक ऐसे रूप की जिसमें एक सीध में दो बिंदु और बायें के ऊपर तीसरा बिदु, (:. हो) कल्पना करनी पड़ती है जो अभी तक कहीं मिला नहीं।
161, मिला. बु., इ. स्ट. III, 2, 36 तथा आगे ।
162. खंड, इ में कोष्ठकों में दिये गये अंक फल. H की क्रमसंख्या हैं, मिला. 16, इ. ई. उ. के लिए मिला. बु. ई. स्ट. III, 2, 58 तथा आगे।
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