________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४
भारतीय पुरालिपि-शास्त्र है । स्तं. VII का रूप एकदम घसीट है और यह जौगड़ के पृथक् आदेशलेख तक ही सीमित है।
(36) पृ. २३ की तुलनात्मक तालिका का सं. 19 (कालसी) का व का आधुनिक-सा रूप भी देखिए। शिद्दापुर का स्त. XII का व जिसमें निचला हिस्सा मोटा हो गया है और स्त. XVI का कोणीय व दोनों रूप दूसरे पाठों में भी कभी-कभी मिलते हैं। स्त. IX का व तो ऐसा है मानो च को धुमाकर दायें से बायें उलट दिया गया हो । यह सोहगौरा की दूसरी पंक्ति के वेसगमे में मिलता है। .. (37) पृ. २३ की तुलनात्मक तालिका का V, c का चौड़ी पीठवाला श भी देखिए । और इसकी तुलना कालसी आदेशलेख XIII, 1, पंक्ति 35, 37, 38; 2, पंक्ति 17, 19 के श से कीजिए।
(38) स्त. II, III में कालसी के चिह्न का अनुमित पाठ दिया गया है जिसका आधार सेना, इ. पि. 1, 33 है। ष जिससे बाद के रूप निकले हैं वह स्त. XVI में है।
(39) स का सीध पाांग वाला प्राथमिक रूप केवल दक्षिण (शिद्दापुर और गिरनार) में सुरक्षित है। स्त. VII का घसीट रूप कालसी में भी मिलता है।
(40) पृ. २३ की तुलनात्मक तालिका की सं. 5, v, a का ह का रूप संभवतः प्रारंभिक रूप है। कालसी में भी यह रूप मिलता है। स्त. VII का ह का घसीट रूप जोगड़ के पृथक् आदेशलेखों तक ही सीमित है। प्रयागकोसांबी आदेशलेख की प्रथम पंक्ति के महमात में इसका कुछ दूसरा ही घसीट रूप मिलता है।
(41) ई. पू. तीसरी शती के जितने अभिलेखों का पता है उनमें ळ नहीं मिलता । स्त. XVIII के सांची के ळी में ळ निस्संदेह ई. पू. दूसरी शती का है। सं. 20 स्त० VI (रधिया) के ड को ही जिसमें नीचे एक बिंदी लगी है शायद ळ पढ़ना पड़ेगा। यह चिह्न दिल्ली-शिवालिक, मथिया, और रधिया में (आदेश. V) संस्कृत दुड़ी या दुली और मथिया और रधिया में द्वादश के अर्थ वाले शब्द में मिलता है जो प्राकृत में दुवाडस हो जाता है। यह बिंदी ख और ज की भाँति वृत्त का ही प्रतीक हो सकती है। यदि ड का यह परिवर्तित रूप ळ के लिए इस्तेमाल में आता था तो यह चिह्न कोणीय ड से करीबकरीब उसी तरह निकला होगा जैसे बाद का ळ गोली पीठ वाले ड से निकला (देखिए ऊपर 4, आ, 6)।
14 For Private and Personal Use Only