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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र में, या नीचे भी रखा मिल सकता है (देखि० महंतस, तक्षशिला ताम्र-पट्ट की प्रथम पंक्ति )।
इ. संयुक्ताक्षर १. इंडोग्रीक सिक्कों पर मिलने वाले संयुक्ताक्षरों में जैसे; क (6, VII), खो (39, XIV), स्त्र (38, XIV) में या शकों के अभिलेखों के संयुक्ताक्षरों में, जैसे; ष्टे (22, XIII), रूस (25, XIII), स्त (23, X HI) में अक्षरों के रूप में बहुत कम परिवर्तन मिलता है। शकों और पुराने कुषानों के सिक्कों पर भी यही बात लागू होती है। पर इन पर कुछ नये योग मिलते हैं, जैसे; प्स (26, XIII), र्म (28, XIII); गार्डनर के कैटलाग के फल० 25, 1, 2 के म से इसकी तुलना कीजिए, ३प (29, XIII) जिसे ज्यादातर लोगों ने ग्रीक स्पलाइरिसेस की वजह से स्प पढ़ा है, श्व (30, XIII) जिसमें व एक भंग बन गया है (दे० ऊपर 11, इ, 4) और कदिफसेस में (27, XIII); पाठ संदेहास्पद है, इसका ऊपरी हिस्सा तो सीधा-सादा पि है पर नीचे का हिस्सा किसी भी ज्ञात चिह्न से नहीं मिलता।
2. घसीट कुषान-खरोष्ठी के अभिलेखों में संयुक्ताक्षरों में कुछ, जैसे; ग्र (8, XI), भ (28, XII) खरोष्ठी के पुरागत रूपों से हूबहू मिलते हैं। कुषान काल में सर्व में व (व) (39, I) का पुराना रूप ही मिलता है । संयुक्ताक्षर त्व (31, XIII) त्श् (32, XIII); गलत पाठ त्स और
क (35, XIII) और ष्टु (36, XIII) में अक्षरों के नये कुषान रूप मिलते हैं। किन्तु स्व (37, XIII) के स का बुरी तरह से अंग-भंग हो गया है । र्य (34, XIII), 4 (33, XII), ष्य (35, XII) और स्य (36, XII ) 119 में फंदों का एक नया घसीट रूप बन गया है। ऐसे सभी शब्दों में जहां स्त आता है कुषान-अभिलेखों में ठौं मिलता है (16, X, XI) । संभवतः दायें तरफ में डंडे का हटना घसीट लेखन की वजह से है (मिला० 23, XIII), जरूरत के मुताबिक इसे स्त और ठ दोनों पढ़ना होगा। धम्मपद की हस्तलिखित प्रति में ये दोनों चिह्न हैं।
119. ओ. फैके. त्सा. डे. मी. गे. I, 604 में इसे स्स पढ़ने का प्रस्ताव करते हैं, किंतु मिला. 35, XIII, जो ष्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।
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