________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खरोष्ठी की उत्पति
५७
16. बाद की खरोष्ठियों में ल ( 32, VIII, X ) का बायां भाग हमेशा गोलाईदार रहता है । कुषान-खरोष्ठी में यह हिस्सा प्रायः खड़ी लकीर के ऊपरी हिस्से से जुड़ा रहता है ( 32, XI, XII) ।
17.
उत्तर-काल में व (33, VIII, X ) का सिर हमेशा गोलाईदार
रहता है ।
18. इसी प्रकार श ( 34, VIII, X ) भी प्रायः गोला, य से मिलताजुलता बनाते हैं ।
19. उत्तर काल में स के सिर की बाईं रेखा जो उसे दुम से जोड़ती है, नहीं रहती । यह नया रूप कुषान- खरोष्ठी में बड़ा घसीट बन जाता है । दे० 36, XII ।
आ. स्वर- मात्राएं और अनुस्वार
1. इ की मात्रा की लकीर प्रायः खड़ी लकीर को नीचे से काटती हुई चली जाती है; देखि ० इ ( 2, VII, VIII, X ), दि (22, XI ), नि ( 24, XI ), आदि । कुषान- खरोष्ठी में मि ( 29, XI ) में इसमें एक हुक लग जाता है । इसी तरह ओ की मात्रा भी कभी-कभी खड़ी लकीर में नीचे की ओर जुड़ती है । दे० रो (31, XI ), हो ( 37, XII ) ।
2. 'ए' कार में ए की मात्रा की लकीर हमेशा अ के दायें लगती है (4, VI-VIII) । यह लकीर खिसकते - खिसकते एकदम नीचे तक भी पहुँच जा सकती है । बाद में नन्हीं लकीर एक बड़ी-सी झुकी रेखा भी बन जाती है (4, X, XII) या इसमें अंत में एक हुक लग जाता है ( 4, XI ) । कभी-कभी ए की मात्रा व्यंजन चिह्नों के नीचे भी लगती है, जैसे; शे ( 31, IX, मथुरा
सिंहशीर्ष से ) में |
3. इंडो-ग्रीक सिक्कों पर उ की मात्रा-चिह्न अपने पुराने रूप में ही मिलता है । जु ( 12, VII ) में आधार रेखा रहने की वजह से लकीर ऊपर की तरफ उठ गई है। इसी तरह पु (25, VII ) में प में झुकाव होने के कारण भी रेखा ऊपर को उठ गई है । बाद में उ के लिए एक भंग या फंदा लगने लगता है, जैसे उ कार (3, VIII), कु ( 6, XI), खु (7, XI ) आदि-आदि। मु ( 29, IX, XII) में भंग दायें को खुलता है ।
4. अनुस्वार के लिए बगल में म का चिह्न लगाते हैं । यह चिह्न या तो मात्रिका से जुड़ता है, जैसे; अं ( 1, VII ), इं ( 2, VII ), ठि (16, XI) में या बायें तरफ अलग ही रख दिया जाता है, जैसे, यं ( 30, VIII )
57
For Private and Personal Use Only