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खरोष्ठी की उत्पत्ति
5. आ में दूसरा संक्षिप्त न (दे० ऊपर 9, आ, 3) कभी दायें जुड़ता है (14, I, V) और कभी बायें (14, III, IV)। अक्षर का दायां भाग घसीट कर लिखने की वजह से खड़ी पाई में बदल जाता है, जैसा कि बाद के अभिलेखों में मिलता है (14, IX)।
6. ट का सामान्य रूप तो 15, I, II वाला ही है, किन्तु बाईं ओर का डंडा कभी-कभी दाई ओर की अपेक्षा जरा नीचे लगता है (15, V, 38, II), या दोनों डंडे बाईं ओर ही लगते हैं (38, VI) या दाईं ओर का डंडा लगाते ही नहीं (मन्सेहरा में ऐसा सामान्यतः हुआ है), देखि. 15, III ।
7. त (20) अधिकांशतया (31) र की अपेक्षा छोटा और चौड़ा होता है। इसकी दोनों रेखाएँ या तो लंबाई में बराबर होती हैं या खड़ी रेखा दूसरी की अपेक्षा छोटी होती है। 20, V जैसा रूप बिरले ही मिलता है।
8. दि (22, II) दो बार मिलता है, शाहबाजगढ़ी आदेशलेख IV, 1, 8, और मन्सेहरा आदेशलेख VII, 1, 33 में (त्सा.डे.मी.गे. में गलती से इसे द्रि पढ़ लिया है) । इसमें अक्षर के पैर के दाईं ओर भंग है। संभवतः इसका उद्देश्य द को न से अलग पहचानने के लिए है।
9. ध का वह रूप जिसमें अंत में बाईं तरफ ऊपर को जाती एक लकीर बनाई गई है, विरले ही मिलता है । यह एक अनुषंगी विकास है (दे० ऊपर 9, आ, 1)। 38, VIII (ध्र) में ध का जो रूप है वह मन्सेहरा से लिया गया है। यह रूप असामान्य है। इसमें जो दूसरा डंडा दीखता है वह बाईं ओर के अति तेज झुकाव के बदले लगा है (23, v) ।
10. नतशिर न (21, III) ने में बिरला नहीं।
11. म (29, I) का अति खंडित रूप पुराने लटकन के अवशेष वाले रूप से अधिक प्रचलित है (मिला० ऊपर 9, अ, सं. 12) । स्वर-चिह्नों के साथ तो यही रूप मिलता है । यह रूप ऐसे ही संयोगों के कारण हैं भी।
12. अशोक के आदेशलेखों में उत्तरकालीन अभिलेखों वाला ल जिसमें बाई ओर एक भंग है (32, VIII) बिरले ही मिलता है । मन्सेहरा के आदेशलेख VI, 1, 29 में यह रूप मिलता है।
13. 34, HI का घसीट गोलाई वाला श, बहुत कम मिलता है। शाहबाजगढ़ी में एक बार आदेशलेख XIII, 1, 1 में श का ऐसा रूप मिलता है जिसे य, से मुश्किल से अलग किया जा सकता है।
14. स के तिकोने सिर (36, II) और गोलाईदार सिर (36, I, III, IV) वाले रूप इसके पुराने बहुकोणीय रूप (36, V) को ही घसीटकर
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