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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र का लिथोग्राफ, ज.रा.ए.सो. 1863, 256 फल० 10) 114 और खोतन की धम्मपद की प्रति में पूर्ण विकसित रूप में मिलती है दे० ऊपर 7 ।
11. पुरागत खरोष्ठी115
अ. मात्रिकाएं __ 1. जिन अक्षरों के आखीर में सीधी या तिरछी रेखा होती है उनका अंत दिखाने के लिए न्यून कोण बनाती ऊपर को उठती एक छोटी-सी लकीर वना देते हैं । (फल० I, 1. II ; 6, II, V; 7, II; 8, II; आदि) । यदि किसी अक्षर के अंत में दो तिरछी रेखाएं हों, जैसे य और श (34, II), तो यह उठती लकीर बायीं ओर को जोड़ते हैं । अशोक के मनसेहरा के आदेशलेखों में ढ में इसके बदले आधार बनाती एक सीधी लकीर बना दी गई है। (18,V)
2. च के तीन भेद हैं, (अ) जिसके सिर पर अधिक कोण है (10, I, II, IV) (आ) जिसके सिर पर भंग है (10, V); और (इ) जिसके सिर पर भंग है जो एक खड़ी लकीर के द्वारा धड़ से जुड़ा है (10, III)।
3. इसी प्रकार छ का सिर भी कभी कोणीय होता है (11,I,IV) और कभी गोला (11, II)। परवर्ती छ की भांति इसमें कभी-कभी सिर के नीचे अर्गला नहीं होती।
4. ज का पूरा रूप कम-से-कम एक बार शाहबाजगढ़ी में (12, I, V) और उससे अधिक बार मन्सेहरा में मिलता है, जहाँ एक बार (आदेशलेख V, 1, 24) डंडा पैर के बायें लगा है। ज के बायें की लकीर प्रायः घुमावदार होती
नैश्फोल्गर अलेक्ज. डी. ग्री. (अंत); गौ. ही. ओझा भा. लि. फल. 26
पर है। 114. खरोष्ठी अभिलेखों की दूसरी प्रतिकृतियाँ यहाँ मिलेंगी : (1) अशोक के आदेश लेख, ज. रा. ए. सो. 1850, 153; क, इं. अ. (का. इ. इं. 1) फल. 1, 2; क; आ. स. रि. V, फल.5; से. इं. पि. 1 (अंत)); इ. ऐ. X, 107; (2) उत्तरकालीन अभिलेख, प्रि., इं. ऐ. 1, 96 (फल. 6), 144 (फल. 9, 162 (फल. 13); वि., ए. ऐ. 54 (फल. 2), 262; क., आ. स. रि. ii, 124, (फल. 59), 160 (फल. 63); V (फल. 16); 28; ज. रा. ए. सो. 1863, 222 (फल. 3), 238 (फल. 4), 250 (फल. 9), 256 (फल. 10) और 1877,144; ज.ए. सो. बं. XXIII, 57; XXXI 173, 532; XXXIX; 65; इ. ऐ. XVIII, 257; से., नो. ए. इ. सं. 3 (ज. ए., 1890, I, फल. 1, सं. 2) और 5 (ज. ए. 1894, II, फल. 5 स.34,36) इनम पिछले तीन को छोड़कर शेष सभी बकार है। .. 115. मिला.त्सा., डे. मी. गे. XI,III, 128 तथा आगे; 274 तथा आगे। है (12, III)।
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