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भारतीय पुरालिप-शास्त्र लिखने से बने हैं। कभी-कभी स में लगने वाली खड़ी लकीर नहीं मिलती। उदाहरणार्थ, मन्सहरा आदेशलेख VI, 1, 27 में।
__15. ह के सबसे प्रचलित रूप वे हैं जिनमें नीचे एक भंग (37, I, IV) या छोटा-सा हुक (37, III, V) रहता है। ये रूप ह के 37, II वाले रूप को ही घसीट कर लिखने की वजह से निकले हैं। दे० ऊपर 9, अ, सं. 5. ।
आ. स्वर-मात्राएँ और अनुस्वार ___ 1. इ की मात्रा की लकीर हमेशा व्यंजन की आड़ी लकीरों के बायें भाग में उसे काटती हुई जाती है (6, III; 7, III; 15, II, III, आदि)। जिन अक्षरों में सिर पर दो आड़ी या तिरछी लकीरें होती हैं उनमें यह दोनों लकीरों को काटती हुई जाती है (14, III; 16, III; 38, III, VI, आदि)। इसी प्रकार ण में (19, X) यह सिरे की दोनों लकीरों को काटती हुई जा रही है। 'इ' कार (2, I), दि (22, II) और नि में यह सिरे के ठीक नीचे लगी है । यि (30, II) में यह बायें भाग में लटक रही है ।
2. ए की मात्रा की लकीर इ की लकीर का प्रायः ऊपरी आधा होती है । इसका रूप और लगने का स्थान भी वही है (4, I; 6, IV; 12 II; 19, III आदि) । 'ए' कार में (4, II) यह अ के सिर के ठीक ऊपर भी हो सकती है।
3. ओ की मात्रा की लकीर की स्थिति इ की मात्रा की लकीर के निचले आधे की तरह है। पर यह गो, धो (9. II) और सो (36, IV) में ऊपरी भाग से बने कोण के और दायें जुड़ती है।
4. उ की मात्रा की लकीर हमेशा व्यंजनों में अक्षर के नीचे के अंत में बाई तरफ जुड़ती है। लेकिन यदि नीचे के हिस्से में कोई भंग हो जो बाईं ओर को मुड़ता हो (उ, 3, II) या दाईं तरफ को मुड़ता हो (दु, 22, IV) या दाईं तरफ में हक हो (प्र, 25, V; इ, 37, IV) तो यह लकीर इससे जराऊपर हटकर लगती है। मु में यह म के सिरे की बाईं तरफ लगी है (दे० नु, 29, V)।
5. अनुस्वार के लिए कभी-कभी केवल मं में (29, IV) म का पूरा रूप मिलता है (दे० 9, आ, 4 ) । अनुस्वार के लिए इससे अधिक प्रचलित तरीका घसीटकर एक छोटी-सी सीधी लकीर जैसे, मं (38, XI) में या म के दोनों बाजुओं में दो हुक बना देना है, जैसे में (38, X) में । जिन व्यंजनों के अंत में एक तिरछी या खड़ी रेखा होती है उनमें अनुस्वार के लिए एक कोण बना देते हैं जो ऊपर को खुलता है, इसे अक्षर का पैर बीचों-बीच काटता है (8,
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