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४८.
भारतीय पुरालिपि शास्त्र -
इसलिए दोनों के स्वरमात्राओं में परस्पर संबंध है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। इसमें मूल चिह्न ब्राह्मी का ही है क्योंकि जैसा कि 4, इं, 1 में दिखलाया गया है ब्राह्मी स्वर की मात्राओं के चिह्न के आद्य स्वरों से ही निकले हैं ।
अ में स्वर मात्राएं लगाकर इ, उ, ए लिखने की विधि खरोष्ठी की अपनी विशेषता है । इसका कारण वर्णमाला को सरल बनाने की इच्छा हो सकती है । उत्तरकालीन भारतीय वर्णमालाओं में देवनागरी लिपि में ओ और औ में इसके उदाहरण मिलते हैं । गुजराती में ए, ऐ, ओ, औ भी इसी तरह लिखे जाते हैं । ब्राह्मी से निकली अनेक विदेशी लिपियों में, जैसे; तिब्बती में खरोष्ठी का सिद्धांत पूरी तरह विकसित हुआ है ।
खरोष्ठी में सभी स्वरहीन अनुनासिकों के लिए ब्राह्मी की भाँति अनुस्वार का प्रयोग होता है । यह म से निकला है ( टामस ) । मं, सं. 12, स्त० IV, में म का पूरा रूप सुरक्षित है । किन्तु प्रायः घसीट में उसका रूप - परिवर्तन होता है, दे० आगे 11, आ. 5 ।
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10. फलक 1 की खरोष्ठी के विभेद
फलक 1 के अनुसार खरोष्ठी के 4 मुख्य विभेद हैं:
1. ई. पू. चौथी - तीसरी शती की पुरानी खरोष्ठी -- शाहबाजगढ़ी (आदेश
113. फलक I निम्नलिखित रूप में तैयार किया गया है
1-37, स्त. I-V और 38, 39, स्त. I-XIII का अनुरेखण डा. बर्गेस के द्वारा अशोक के शाहबाजगढ़ी और मनसेहरा के आदेश लेखों की ली गयी छाप के सहारे डा. डे डेकाइंड ने तैयार किया है, जिसकी फोटो ली गई है । 1-37, स्त. VI, VII और 38-39 स्त XIV के अनुरेखण को डा. कार्टेलियरी ने गार्डनर के द्वारा तैयार किये गये इंडो-ग्रीक सिक्कों के तद्रूपों के सहारे बनाया है ।
1-37, स्त. VIII, IX और 22-25, स्त XIII को डा. बर्गेस द्वारा मथुरा के सिंहशीर्ष और तक्षशिला के ताम्रपट्ट की ली गयी छाप के सहारे बनाया गया है । तक्षशिला की ताम्रपट्ट के एक कोलोटाइप तो ए. इं. IV, 56, (10 और 14, स्त. VIII, और 25, स्तं. XIII) में अब छप भी चुकी है ।
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1-37, स्त. X- XII, और 31 - 37, स्त XIII, को डा. हार्नली की सुड बिहार अभिलेख की प्रतिकृति के अनुरेखण से या उसे सामने रखकर
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