________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
खरोष्ठी की उत्पत्ति गई है। ऊपर 4, आ, 4 में ब्राह्मी ऐ, ओ, न, ञ, और ण के निर्माण में गृहीत या संजात चिह्न के गुण परिवर्तन के लिए छोटी लकीर के इस्तेमाल बारे जो कुछ कहा गया है उससे इसकी तुलना कीजिए।
3. तालव्य ध्वनियां--सं 13, स्त० IV, b, C का तालव्य ने दो न (स्त० III, a) को जोड़ देने से बना है। (एड. टामस) यह आधुनिक भारतीय ञ और ण को दिखाता है। इन्हें पडित प्रायः बड़े नकार कहते हैं। इस चिह्न की लिपिकों को कोई जरूरत न थी। पंडितों की लिपि ब्राह्मी में यह चिह्न था । शायद इसीलिए इसका निर्माण हुआ।
4. स्वर-तात्राएं, संयुक्ताक्षरों में स्वराभाव और अनुस्वार--दीर्घ स्वरों के लिए निशान नहीं हैं। ब्राह्मी की भाँति इसमें भी प्रत्येक व्यंजन में अ की ध्वनि अंतहित है । दूसरे स्वरों के लिए सीधी लकीरें लगाते हैं। इ की मात्रा की लकीर व्यंजन के सिरे वाली रेखा या रेखाओं के बायें से गुजरती है। उ की मात्रा में यह पैर के बायें होती है। ए की मात्रा के लिए लकीर सिर की रेखा के बायें उतर आती है। ओ की मात्रा में यह इस रेखा में लटकती रहती है। (दे० ठो सं. 20 स्त० IV, त)। इसके और व्योरों के लिए देखिये 11, आ अ में यही चिह्न लगाकर इ, उ, और ओ बनते हैं (सं. 1, स्त० IV, a-d) । अनुस्वारों को छोड़कर दो असमान व्यंजनों में स्वर का अभाव ब्राह्मी की भाँति दो चिह्नों को मिलाकर संयुक्ताक्षर के द्वारा दिखलाते हैं । इसमें दूसरा अक्षर प्राय: पहले अक्षर के नीचे जोड़ा जाता है। किन्तु र अक्षर, चाहे इसका उच्चारण दूसरे व्यंजन के आगे हो या पीछे हमेशा दूसरे व्यंजन के पैरों में लगता है। अनुस्वारों को छोड़कर व्यंजन द्वित्व के लिए अकेले व्यंजन का और अल्प-प्राणों और महाप्राणों के लिए केवल महाप्राणों का प्रयोग होता है । व्यंजन से ठीक पहले यदि अनुनासिक आता है तो उसे अनुस्वार से व्यक्त करते हैं। अशोक के आदेश-लेखों में इसे पूर्व की मात्रा में जोड़ देते हैं। .
व्यंजनों में अकी अंहित ध्वनि के लिए अलग चिहन न लगाना और संयक्ताक्षरों के बनाने के नियम निःसंदेह ब्राह्मी से लिये गये हैं। इसमें थोड़ी रद्दोबदल जरूर हुई है। यह भी संभव है कि इ, उ, ए, और ओ के लिए सीधी लकीरों का प्रयोग भी ब्राह्मी से ही लिया गया हो, क्योंकि अशोक के सभी आदेश-लेखों की ब्राह्मी में उ, ए और ओ के लिए सदा या बहुधा मामूली लकीरें लगाते हैं । गिरनार में इ के लिए उथला भंग बना देते हैं जो सीधी लकीर-सा ही दीखता है । दोनों में अंतर करना प्रायः कठिन होता है। ब्राह्मी में खरोष्ठी की तरह ही इ, ए और ओ की मात्राएं व्यंजनों के सिरों पर और उ की मात्रा पैरों में लगती है ।
47
For Private and Personal Use Only