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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र हैं। जो संभवतः घसीट ह को प्रकट करता है (टेलर)। घसीट में इसके लिए मामूली-सी रेखा बना देते हैं । साथ ही मूल मात्रिका को कभी-कभी और आसान कर देते हैं--(अ) घ में (सं. 3 स्त० IV) ग की खड़ी लकीर के दायें, ध में (सं. 4, स्त० IV, a) द के सिरे पर, और ठ, में (सं. 20, स्त० IV, d) ट (सं. 20, स्त IV, c) के दूसरे डंडे के किनारे पर एक भंग या हुक जोड़ दिया गया है । ठ, सं. 20, IV, d (ठीक कहें तो ठो) में ठंडे के किनारे से वह ऊपर की ओर उठता है। (आ) भ, सं. 2, स्त० a, b, में एक हुक या भंग या घसीट में एक तिरछी रेखा ब के दायें मिलती है, साथ-साथ ब के सिर को एक सीधी रेखा में बदल देते हैं और क, सं. 10 स्त० III, से अलग पहचान के लिए इसे और बायें खिसका देते हैं। (इ) निम्नलिखित महाप्राणों में केवल घसीट सीधी लकीर मिलती है; झ सं. 7, स्त• IV और फ, सं. 15 स्त० IV में बायीं ओर, और छ, सं. 16, स्त० IV, ढ, सं. 4, स्त० IV, C और थ, सं. 20, स्त० IV, a में दायीं ओर को जुड़ी है। इन सभी अक्षरों की और विशेषताएं भी हैं। छ में च के बायीं तरफ की छोटी-सी लटकन को आड़ा कर दिया गया है और अर्गला से महाप्राणता की रेखा के साथ जोड़ दिया गया है। ढ में ड के सिर को चपटा कर एक सरल रेखा बना दिया गया है । थ प्राचीन अरमैक ताव, सं. 20, स्त० I, a को दायें से बायें पलटकर बना है । महाप्राणता की लकीर ताव के डंडे को दायीं ओर बढ़ा देती है।
2. मूर्धन्य ध्वनियां--पुराने ताव से ट बना । इसमें अक्षर को दायें से बायें पलटकर एक नन्हा-सा डंडा लगा दिया गया है। अशोक के आदेश-लेखों में यह डंडा प्रायः दायें को और बायीं ओर के डंडे से जरा नीचे लगता है, जैसे; सं. 20, स्त० IV, b में । स्त• IV, C में मूर्धन्य का चिह्न बायें और ट के नीचे है और इसमें डंडा भी सिर पर है । अशोक के आदेश-लेखों में ट का यह रूप बिरले ही मिलता है किन्तु इसके पहले यह बहुत प्रचलित रहा होगा क्योंकि ठ का रूप इसी से निकला है। (दे० आ, 1, अ)। सं. 4, स्त० IV, 6 का ड बहु-प्रचलित अरमंक डलेथ, स्त० 1, 6 (तइस्मा) से हुबहु मिलता है। शायद दोनों एक ही हों। भारत में लाये गये ड अक्षर के यदि दो रूप (स्त० 1, a, b) रहे होंगे तो दोनों गृहीत चिह्न हो सकते हैं, और इसमें जो अधिक बोझिल चिह्न है, संभवतः वही इस अक्षर की ध्वनि को अधिक पूर्णता से व्यक्त करता है । यह भी संभव है कि ड का रूप सं. 4, स्त० 3, a के उ से ही मूर्धन्य को दायीं ओर खड़े बल लगाकर बना हो सं. 13, स्त० IV, a का रूप भी इसी प्रकार स्त० III, a, b के न से निकला है जिसमें नीचे की ओर जाती एक सीधी लकीर जोड़ दो
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