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ब्राह्मी की उत्पत्ति
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जोड़ देते हैं, इ की उत्पत्ति; जिसके लिए इसके गुणस्वर ए के चिह्न को और सरल कर देते हैं; इ के गुण-स्वर ए से वृद्धिस्वर ऐ की उत्पत्ति और ड से ळ की उत्पत्ति, ड के स्थान पर प्रायः ळ का ही प्रयोग करते हैं, जैसे ईडे के स्थान पर ईळे; (5) अ की अभिव्यक्ति न करना क्योंकि वैयाकरणों के मतानुसार यह प्रत्येक व्यञ्जन में स्वतः स्थित है; आ की मात्रा को अ और आ के अंतर से व्यक्त करना, दूसरी स्वर - मात्राओं को आद्य स्वरों या उनके घसीट सरल रूपों को व्यंजनों में जोड़कर व्यक्त करना; साथ ही स्वरों की अनुपस्थिति के लिए संयुक्ताक्षरों का प्रयोग । ये सभी प्रकरण पांडित्यपूर्ण हैं, और इतने कृत्रिम हैं कि इनका आविष्कार पंडितों ने ही किया होगा, न कि व्यापारियों या मुनीमों ने । व्यापारी और मुनीम अभी हाल तक अपने पत्रव्यापार और बहीखातों में स्वर - मात्राओं का प्रयोग नहीं करते थे । इससे यही अनुमान होता है कि इनके द्वारा परिष्कृत लिपि में कोई स्वर चिह्न न रहे होंगे । यह त्रुटिपूर्ण लेखन अत्यन्त प्राचीन काल का अवशेष है या मध्यकाल में अरबी वर्णमाला के प्रचार के कारण है, इसका इस अनुमान के सही या गलत होने में कोई महत्व नहीं है ।
व्यापारी जब पहली बार इस देश में सेमेटिक लिपि ले आये होंगे, तब से ब्राह्मणों द्वारा इसके अपनाये जाने ( यह तत्काल नहीं हुआ होगा) और ब्राह्मी के 46 मूल चिह्नों, स्वर- मात्राओं और संयुक्ताक्षरों के विकास में निश्चय ही काफी समय लगा होगा ।
ऊपर वर्णित अनुसंधान से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ब्राह्मी का विकास ई. पू. 500 के लगभग या इससे पूर्व भी पूरा हो चुका था । इसलिए भारत में सेमेटिक लिपि के आगमन की वास्तविक निधि हम ई. पू. 800 के लगभग रख सकते हैं । यह अनुमान अभी अनन्तिम ही है । भविष्य में भारत या सेनेटिक देशों में पुरालिपिक नये प्रमाणों की खोज होने पर इस तिथि में कुछ रद्दोबदल भी हो सकती है । यदि इस अनुमान में परिवर्तन आवश्यक ही हुआ तो हाल की खोजों के आधार पर मेरा विश्वास है कि भारत में सेमेटिक लिपि के आगमन की तिथि ई. पू. 800 से पूर्व सिद्ध होगी । इसे संभवत: ई. पू. 1000 या इससे भी पहले रखना होगा ।
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