________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भारतीय पुरालिपि-शास्त्र संभोट या थोन्मी ने 630-660 ई. के बीच मगध से भारतीय लिपि के तत्व तिब्बत ले जाकर तिब्बत की सेवा की 191 ___चाहे जो भी हो, इससे यही संभावना प्रतीत होती है कि वणिकों ने ही सबसे पहले सेमेटिक लिपि अपनायी, क्योंकि निश्चय ही विदेशियों से उनका ही सबसे अधिक वास्ता पड़ता था, और उन्हें ही अपने कारोबार में सौदों का लिखित प्रमाण रखने की सबसे अधिक जरूरत पड़ी होगी । ब्राह्मणों को लेखन-कला की उनसे कम आवश्यकता थी; क्योंकि जैसा कि ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि उनमें अत्यंत प्राचीन काल से अपने साहित्य को मौखिक रूप से सुरक्षित रखने की परंपरा चली आ रही थी।
फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्राह्मी का जो प्राचीनतम रूप मिलता है उसका निर्माण विद्वान ब्राह्मणों ने संस्कृत को लिपिबद्ध करने के लिए किया था। . इस अनुमान की पुष्टि अशोक के संगतराशों द्वारा गया में खोदी गई वर्णमाला के अवशिष्ट अक्षरों से होती है । इस वर्णमाला में संस्कृत ऐ और औ के चिह्न भी रहे होंगे । यह वर्णमाला ध्वनि-शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार बनाई गई है। साथ ही हिंदुओं द्वारा संजात चिह्नों के निर्माण में ध्वनि-विज्ञान और व्याकरण के सिद्धांतों के प्रभाव से भी ऊपर के अनुमान की पुष्टि होती है । ध्वनिविज्ञान और व्याकरण के विशेषज्ञों का हाथ नीचे लिखे प्रकरणों में देखा जा सकता है। (1) पाँचों अनुनासिक वर्णों तथा अनुनासिक के लिए एक सामान्य चिह्न का दो सेमेटिक चिह्नों से विकास तथा दीर्घ स्वरों के लिये चिह्नों के एक पूरे समुच्चय (Set) का विकास । यह समुच्चय ध्वनि-वैज्ञानिकों और वैयाकरणों के लिए तो बहुत जरूरी है, पर व्यापारियों के लिए उतना जरूरी नहीं है। इसीलिए अन्य प्राचीन लिपियों में यह अज्ञात है। (2) एक ही सेमेटिक चिह्न (समेख) से ध्वनि-विज्ञान की दृष्टि से काफी अलग, पर व्याकरण
की दृष्टि से सगोत्री स और ष के दो वर्णों का विकास; (3) उ को आधे व के चिह्न से दिखलाना जिससे संप्रसारण से स्वर निसृत होता है; (4) उ से ओ की उत्पत्ति (ओ उ का गुण-स्वर है), इसके लिए उ के चिह्न में एक रेखा और
91. ज. ए. सो. बं. LVII, 41 तथा आगे 92. मिला. वेस्टरगार्ड, ज्बेई एमेड्लुंगेन, 37 तथा आगे 93. ऋ. वे. VII, 103, 5; मिला. मै. मू. हि. ऐ. सं. लि. 506 94. मिला. वैकरनैगेल, ऐल्टिड. प्रामाटिक 1, I.vii,
34
For Private and Personal Use Only