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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र पड़ती है जब क्रमशः मेसा अभिलेख और असीरियन बटखरों वाले अभिलेख खोदे गये थे। अधिक संभावना यही है कि यह सीमा ऊपर की ओर उतनी नहीं जितनी नीचे की ओर या मोटे तौर पर 800 ई. पू. के आस-पास पड़ेगी। अन्य अनेक परिस्थितियों से भी यही संभावना प्रबल मालूम पड़ती है कि इसी समय में हिन्दू लोग सेमेटिक अक्षरों से परिचित हुए।
ब्राह्मी के ह और त अक्षर हे और ताव के जिन रूपों से निकले हैं वे फोनेशियन अभिलेखों में नहीं मिलते, बल्कि मेसोपोटामिया में ही मिलते हैं । इसलिये इस बात की संभावना अधिक मालूम पड़ती है कि मेसोपोटामिया ही वह सेमेटिक देश था जहाँ से ये अक्षर भारत में आये 185 इसका मेल इस अनुमान से भी बैठ जाता है कि भारत के अत्यन्त प्राचीन ग्रंथों में इस बात के उल्लेख हैं कि हिन्दू व्यापारी अत्यन्त प्राचीन काल में हिंद महासागर में यात्राएं करते थे । बाद के ग्रंथों में भी--ये ग्रंथ भी काफी प्राचीन हैं--हिन्दू व्यापारियों के समुद्र-मार्ग से विदेशों से व्यापार करने का वर्णन मिलता है। बावेरु जातक में बैविलोन को भारतीय सामान के निर्यात का उल्लेख है । यह उल्लेख काफी पुराना है । बाविलु शब्द का अंतिम अंश इलु परिवर्तित होकर एरु हो गया है। यह रूप पश्चिम भारत में बदला होगा जहाँ ल के स्थान पर प्रायः र हो जाता है; जैसे, गिरनार और शाहबाजगढ़ी के लेखों में टोलेमियस का तुरमाय हो गया है । कई अन्य जातक-कथाओं में, जैसे जातक सं. 463 में; जहाँ समुद्री यात्राओं का वर्णन है भरुकच्छ (आधुनिक भडोच) सूर्पारक (आधु० सोपारा) के नाम आये हैं जहाँ से फारस की खाड़ी के देशों के साथ ईसा की पहली शती और उसके काफी बाद तक व्यापार होता था। ये पश्चिमी भारत के प्राचीन बंदरगाह थे। जातकों से पता चलता है कि व्यापारी यहीं से यात्रा प्रारंभ करते थे। इसलिए इस बात की संभावना अधिक मालूम पड़ती है कि ये व्यापार-पथ उससे भी काफी प्राचीन समय से चालू थे । इसी प्रकार दो प्राचीन धर्मसूत्रों में भी इस बात के प्रमाण हैं कि भारत (विशेषकर पश्चिम भारत) प्राचीन काल में समुद्री रास्ते से विदेशों से व्यापार करता था।
85. बेनफे, इडियन 254 के अनुसार सेमेटिक वर्णमाला भारत में फोनेशिया से आयी; ए. वेवर,इंडि. स्किजेन 137 के अनुसार यह फोनेशिया या वैलिोनिया से आयी ।
86. सं. 339, फासवोल, 3, 126; मिला. फिक, डाइ सोसियले ग्लाइडेसंग इन नोडिस्ट्ल. इडियन, 173 तथा आगे ।
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