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ब्राह्मी की उत्पत्ति
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फल० II, 11, III, में इसका और अधिक प्रचलित ढंग एक सरल रेखा बना देता था (के, सं. 16, स्त० VI, A, a) 'ऐ'कार में एकार के साथ एक आड़ी लकीर लगती है। इस रूप के आधार पर 'ऐ' की मात्रा में दो समानांतर आड़ी लकीरें बनाते हैं (थे, सं. 16, स्त० VI, A, c )
(ii) द्राविणी की प्रणाली भट्टिप्रोल के अभिलेखों में माया चिह्नों का संकेत सामान्य रूपों से इस बात में कुछ भिन्न है कि इसमें स्वर मात्राओं के लिए ब्राह्मी के आ का प्रयोग होता है। और माध्य आ की मात्रा के लिए एक पड़ी लकीर बनाते हैं जिसके किनारे से एक छोटी-सी खड़ी लकीर लटकती है (देखि० क, फल II, 9. XIII, का, 9, XIV) इसलिए व्यंजनों में स्वतः स्थित अ नहीं होता। इसमें कोई शक नहीं कि यह युक्ति बाद की है और इसका आविष्कार संयुक्ताक्षरों की आवश्यकता से बचने के लिए हुआ है।
5. सेमिटिक वर्णमाला के ग्रहण का समय और उसकी विधि
ऊपर की चर्चा से स्पष्ट है कि ब्राह्मी के अधिकांश अक्षरों का रूपउत्तरीसेमिटिक के प्राचीनतम चिह्नों से मिलता-जुलता है। उत्तरी सेमिटिक के ये चिह्न पुराने फोनेशियन अभिलेखों, और मेस्सा के पत्थर के लेख में मिलते हैं, जो ई. पू. 890 के आसपास खोदा गया था। दो अक्षर ह और त मेसोपोटामिया के हे और ताव से निकले हैं। ये ई. पू. 8 वीं शती के मध्य के हैं। और दो अक्षर स-ष और श ई. पू. 6ठी शती के अरमैक चिह्नों से मिलते-जुलते हैं, साहित्यिक और पुरालिपिक प्रमाणों से निर्विवाद है कि ई. पू. 600-500 में हिन्दुओं को अक्षर ज्ञान था। तथा तत्कालीन अरमैक के अन्य चिह्न जैसे बेथ, डालेथ, वाव आदि इतने विकसित हैं कि वे तदनुरूप ब्राह्मी अक्षरों के आदि रूप नहीं हो सकते । अतः यह मानना पड़ता है कि स, ष, श के चिह्न, जो अपेक्षाकृत आधुनिक प्रतीत होते हैं, भारत में विकसित हैं। इनके संगत अरमैक अक्षरों का विकास भी इसी प्रकार हआ। जब ये दोनों अरमैक अक्षर नई पूरालिपिक खोजों से और प्राचीन सिद्ध हो जायेंगे तो यह धारणा भी बदल जायेगी। सिंजर्ली में प्राप्त सामग्री को देखने से यह एकदम असंभव भी नहीं मालूम पड़ता है। किन्तु वर्तमान परिस्थिति में हम भारत में सेमेरिक वर्णमाला के आयात की सीमा यहाँ से नहीं मान सकते । यह सीमा लगभग ई. पू. 890 से ई. पू. 750 के बीच
84. बु. इं. स्ट. III, 2, 83-91
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