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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
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हैं । उनके मत से सभी व्यंजनों में 'अ' अंतर्निहित है । इसलिए 'आ' की मात्रा के लिए एक लकीर का इस्तेमाल करते हैं । यही लकीर 'आ' को अ से पृथक करती है ।
दूसरी स्वर मात्राओं के लिए या तो वे पूरे आद्य स्वर चिह्नों का इस्तेमाल करते हैं या उनके घसीट रूपों का । ये मात्राएं ज्यादातर व्यंजनों के सिरों पर जुड़ती हैं, पर यदा-कदा पैरों में भी लगती हैं। ओ की मात्रा और 'ओ' कार की अनन्यता उन सभी व्यंजनों में देखी जा सकती है जिनमें सिरों पर खड़ी रेखाए हैं; जैसे को, सं. 6, स्त० VI h, i, में जहाँ दूसरी अर्गला के नीचे छुरे की आकृति वाले क् के हटा देने पर स्त० VI, f, g वाले चिह्न फिर आ जाते हैं । गिरनार आदेश लेख I, पंक्ति 11 में मगो के गो से भी तुलना कीजिए जहाँ ग् के ऊपर एक 'ओ' कार आ गया है | जौगढ़ के आदेश लेखों में जहाँ स्त० VI, f का 'ओ' कार ही मिलता है ओ की मात्रा का भी हमेशा वही रूप होता है । किंतु गिरनार में यद्यपि स्त० VI, g का 'ओ' कार ही मिलता है, तथापि हमें ओ की मात्रा के दोनों रूप मिलते हैं । इसी प्रकार हमें उन सभी व्यंजनों में जिनमें आखीर में खड़ी लकीर होती है, पूरे 'उ'कार के दर्शन होते हैं, जैसे कु, फल० II, 9, V; डु, 20, VII; दु, 25, V; भु, 31 III, V ( मिला० आगे 16, ई, 4 ) : और कालसी के धु, सं. 6, स्त० VI, 6 में उ की. मात्रा के लिए घसीट में प्रायः 'उ'कार की आड़ी लकीर लगाते हैं जैसे धु, सं. 6, VI, C में या इसकी खड़ी लकीर जैसे चु, फल० II, 13, III, और 26, II, आदि । यदि व्यंजन के आखीर में खड़ी लकीर हो तो ऊ की मात्रा और 'ऊ'कार में कोई अंतर न होगा । अन्यत्र घसीट में इसके लिए दो आड़ी लकीरें बनाते हैं, जैसे धू, सं. 6, स्त० VI, e : किंतु बाद के अभिलेखों में मात्रा के लिए उस समय के 'ऊ' कार का प्रयोग करते हैं । इ की मात्रा के लिए शुरू में शायद 'इ' कार की तीन विंदियों का इस्तेमाल करते थे ( कि, सं. 16, स्त० VI, B, d ) जो बाद में घसीट लिखने में लकीरों से जुड़ गये और फिर अशोक के अधिकांश आदेश लेखों में कोणों में बदल गये (कि, स्त० VI, Be ) 'ई' की मात्रा इसी दूसरे रूप से निकलती है । इसमें स्वर की दीर्घता को दिखलाने के लिए एक लकीर और जोड़ दी गयी है । ( की, स्त० VI, B, J देखि ० ऊपर ( आ ) 3 के अंतर्गत ) । ए की मात्रा के लिए 'ए' कार को त्रिभुज पहले घसीट लेखन में एक कोण रह गया जो बाईं ओर को खुलता था, जैसे गे,
83. देखि आगे 24, आ, 3. फल. IV, 30, XII, XIV; फुल. VII, 30, XII, XX, XXI
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