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ब्राह्मी की उत्पत्ति
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पृ० 31, 76; तथा पृष्ठ 35 और, आगे 16, इ. 12) जो न, सं. 14, स्त० V से निकला है, नीचे की आड़ी रेखा दायें को खिसक गई है, अक्षर अपनी मूल स्थिति में ही है; (छ) सं. 14, स्त० VI, b के ण में जो न से निकला है डंडा खड़ी रेखा के दोनों सिरों पर बाहर निकला है ताकि ना, ने और ओ से अक्षर को अलग रखा जा सके।
___5. महाप्राणता दिखाने के लिये अक्षरों में एक भंग जोड़ देते हैं । सं. 3 स्त० VI का द्राविड़ी घ ग से, सं. 4 स्त० VI, d, का सामान्य ब्राह्मी ढ़ स्त० VI C, के ड से, तथा 17, स्त० VI का फ, स्त० V के प से निकले। इनमें महाप्राणता दिखलाने के लिए भंग जोड़े गये हैं । सं. 18, स्त० va के छ में भंग खड़ी लकीर के दोनों सिरों पर जोड़ा गया है। इसी से आगे चलकर स्त० VI, b वाला घसीट छ अक्षर विकसित हुआ। इससे विरले कभी-कभी भंग के बदले एक हुक लग जाता है। तब मूल चिह्न का अंग-भंग कर देते हैं। इस प्रकार व से सं. 2, स्त० VI का भ और सं. 7, स्त० V a, के ज से स्त० VI के झ बने । भ में आधार की लकीर हटा दी गई है और खड़ी लकीर के दोनों सिरों के डंडों का लोप हो गया है। खसीट लेखन में हुक और भंग दोनों ह के बदले आते हैं । तिब्बती लिपि में81 घ, भ आदि अक्षरों के निर्माण में इनका पुनः प्रयोग हुआ है। _____6. सं. 4, स्त० VI, e, का ब्राह्मी ळ अक्षर स्त० VI, C के आधे गोले ड से निकला है। इसमें एक छोटा-सा अर्द्ध-वृत्त जोड़ दिया गया है । साँची में इसके बदले एक खुला कोण मिलता है (फल० II, 41, XVIII)। व्युत्पत्ति की संभाव्यता का अनुमान ळ और ड की उच्चारणगत समानता से होता है । वैदिक और लौकिक संस्कृतों और प्राकृतों में प्रायः इन दोनों अक्षरों का परस्पर व्यतिहार भी हो जाता है।
(इ) स्वरमात्राएं और संयुक्ताक्षरों में स्वराभाव
(I) ब्राह्मी की प्रणाली संस्कृत के स्वर-शास्त्रियों और वैयाकरणों ने उच्चरित भाषा का ही विचार किया है। वे क् ध्वनि को 'क'कार और ग् ध्वनि को 'ग'कार आदि-आदि कहते
81. आ. रि. 2, फलक पृ. 400 पर 82. मै. मू., हि. ऐ. सं. लि. पृ. 505 तथा आगे
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