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भारतीय पुरालिपि शास्त्र
हैं । महाप्राणता व अन्य कई अक्षरों में भी (दे० आगे 5) मिलता है । ( वेबर ) ; (ग) सं. 16, स्त०V c, d, e, के त्रिभुजाकार ए से तीन बिंदुओं वाला इ अक्षर बना है, दे० स्त० VI, 4, b, c | यह पुराने चिह्न की रूपरेखा मात्र प्रकट करता है ( प्रिंसेप ) उत्पत्ति का अनुमान इस बात से होता है कि ए व्याकरण की दृष्टि सेइ का गुण स्वर है । अतः इसके लिए ए का हल्का रूप उपयुक्त जान पड़ा; (घ) सं. 6, स्त0 V, -2 के व के नीचे के हिस्से को बीच से काट कर बची हुई लटकन को सीधा कर देने से स्त० VI, a का उ अक्षर निकलता है (दे० मेरी इ. स्ट., III, 2, 74 ) इस उत्पत्ति का अनुमान इस बात से होता है कि उ संप्रसारण में व का प्रतिनिधित्व करता है; (ङ) यदि उत्तरकालीन लघु वृत्त ( फल. IV, 38, VI) अनुस्वार (सं. 13, स्त० VI, a, b ) का मूल रूप और बिंदी उसका घसीट प्रतिरूप है तो यह चिह्न खंडित लघु म ही है, जिसका सिर का कोण गायब हो जाता है । इस प्रकार इसे उन लघु स्वरविहीन व्यंजनों की भाँति माना गया है जो ईसा की पहली शताब्दी के अभिलेखों में मिलते हैं (दे० उदा० फल. III, 41, VIII ) । म से खरोष्ठी अनुस्वार की उत्पत्ति भी तुलनीय है ( देखि ० ० नीचे 9, आ, 4 ) ।
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3. लेखन की दिशा में परिवर्तन होने से पूर्व मूल अक्षरों में बायीं ओर को जो छोटी-सी खड़ी लकीर लगती थी नव्य प्रणाली में वह ह्स्व अ और उसे दीर्घ आ (सं. 1, स्त० VI) और ऊ की मात्रा (सं. 6, स्त० VI, d ) बनाने के काम आने लगी । इ अक्षर के रूप में विशिष्टता होने की वजह से ई का रूप दिखाने के लिए रेखा का प्रयोग न करके एक बिंदी से ही काम चला लिया गया, सं. 16, स्त० VI, Bg।
4. नन्हीं आड़ी लकीरें जो मूलतः अक्षर के दायें लगती थीं, स्वर के गुण में परिवर्तन की सूचना देती हैं । (क) सं. 6, स्त० VI, f, g के ओ में जो उ, स्त० VI, a से निकला है ( डंडा मूल रूप में भी है और उत्तरकालीन रूप में भी ), क्यों कि ओ व्याकरण की दृष्टि से उ का गुण-स्वर है; ( ख ) सं. 16, स्त० VI, a, 6 के ऐ में जो ए से निकला है क्योंकि ऐ व्याकरण की दृष्टि से ए का बृद्धि स्वर है; ( ग ) सं. 12, स्त० VI के द्राविड़ी ळ में जो ल ( लमेद), स्त० I II से निकला है । इसमें डंडा अभी तक दायीं ओर को है, क्योंकि अक्षर को घुमाया नहीं गया है; (घ) सं. 14, स्त० VI, a के ञ में जो स्त० VI के मूल औंधे मुंह नून, स्त० VI से निकला है । इसे ऊपर ( अ ) की सं. 14 से मिलाइये; (च) ङ में (दे० मेरी इं. स्ट. III, 2,
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