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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
है । प्रथम सात रूपों के पीछे दो प्रवृत्तियाँ काम कर रही हैं। एक तो कोण बनाने की प्रवृत्ति और दूसरी भंग बनाने की । ये दोनों प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे की विरोधी हैं । फलक II के अन्य अक्षरों; जेसे घ, ड, द ल आदि में भी यही प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। ऊपर दिये गये चिह्नों में सं० 1, 2, 3 प्रथम प्रवृत्ति के दृष्टांत हैं और सं0 6 और 7 दूसरी प्रवृत्ति के । सं० 4 और 5 कोण से भंग के संक्रमण के उदाहरण हैं । आठवां छठें का घसीट सुगम रूप हैं । ये आठो चिह्न अशोक के आदेश - लेखों के सभी पाठों में नहीं मिलते। इनका वितरण निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होता है । कोणीय रूप सं० 1, 2, 3 दक्षिणी आदेश - लेखों में और, गिरनार, शिद्दापुर, धौली और जौगड़ में 4 से 7 के साथ मिलते हैं । यह भी ध्यान देने की बात है कि 4 से 7 वाले रूप गिरनार और शिद्दापुर में बिरले ही मिलते हैं, जबकि धौली और जौगड़ में इनका प्राचुर्य है । नर्मदा या विन्ध्य के उत्तर के पाठों में सं० 4 से 7 वाले रूप सबसे अधिक मिलते हैं, कालसी में सं० 8 वाला रूप भी खूब मिलता है । रामपुरवा में यह रूप कुछ ही बार मिला है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि अ, आ के कोणीय रूप विशेषतः दाक्षिणात्य हैं और निस्संदेह सबसे पुराने भी है । पहले अनुमान की पुष्टि उन अभिलेखों के तुलनात्मक अध्ययन से होती है जिनका आपस में निकट का संबंध है । कोल्हापुर 54 और भट्टप्रोलुकी मंजूषाओं ( फल. II स्तं० XIII-XV ) और नानाघाट ( फल. II, स्तं. XXIII - XXIV) में प्राप्त आंध्र के प्राचीनतम अभिलेखों में अ और आ के एकमात्र कोणीय रूप ही हैं या ये सं०4-5 के मिश्र रूपों के साथ मिलते हैं । किंतु इनसे और उत्तर सांची और भरहुत के स्तूपों या पभोस और मथुरा ( फल. II स्तं. XVIII-XX ) के अभिलेखों या अगाथाक्लीस के सिक्खों या नागार्जुनी गुफा ( फल. II, स्तं० XVII) के अभिलेखों में अ और आ के जो रूप मिलते हैं वे या तो विशुद्ध भंग वाले हैं या मिश्र रूप । महाबोधि गया में ही इसका एक अपवाद मिलता है जिसका खुलासा इस बात से हो जाता है कि दक्षिण के यात्रियों ने उस प्रसिद्ध विहार में दान-सूचक यह लेख खोदा होगा । ख, ज, म, र, और स के संबंध में भी ऐसे ही उत्तरी और दक्षिणी अन्तर हैं । इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि जिन परिस्थितियों में अशोक के आदेश लेख खोदे गये हैं, उनमें स्थानीय रूपों का निर्बाध प्रयोग न हो सकता था । " किंतु स्थानीय रूपों
54. ब, आ. स. रि.वे. इं, सं० 10,39 फल. 56. देखि आगे 16, इ.
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55. कनि; एम. जी. फल. 10, 2
57. देखि आगे 16, आ
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