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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र लिपि को बंभी या ब्राह्मी कहा गया है। इससे भी इस कथा के प्रचलन का संकेत होता है। इन परंपराओं के प्रकाश में उस लिपि को ब्राह्मी कहना ही उचित जान पड़ता है जिसमें अधिकांश अशोक के आदेश-लेख लिखे गये हैं या जो उसका अगला विकसित रूप है।
बेरूनी10 एक दूसरी ही कहानी कहता है । बेरूनी के अनुसार हिन्दू लिखना भूल गये थे। दैवी प्रेरणा से पराशर के पुत्र व्यास ने पुनः इसकी खोज की। इस प्रकार भारतीय लिपियों का इतिहास कलियुग से अर्थात् ई० पू० 3101 से प्रारंभ होता है। ___इन पुराण-कथाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू लोग अत्यंत प्राचीन काल में-निश्चय ही ईस्वी सन् के प्रारम्भ से पूर्व और संभवतः 300 ई० पू० से भी पहले यह बात भूल चुके थे कि उनके यहाँ लिपि की उत्पत्ति कब हुई । किन्तु उनकी परंपराओं में कुछ अंश ऐसे बच रहे हैं जो इस संबंध में काफी महत्त्वपूर्ण है। ऊपर जिन दो जैन-ग्रंथों की चर्चा आई है उनमें 18 लिपियों का उल्लेख है। ललित विस्तर11 से पता चलता है कि बुद्ध के समय में 64 लिपियाँ प्रचलित थीं। दोनों सूचियों में कई नाम समान है। इसमें चार लिपियाँ तो निश्चय ही ऐतिहासिक हैं। वर्तमान भारतीय लिपियों की जननी ब्राह्मी या बंभी के अतिरिक्त दो अन्य लिपियों की भी पहचान ज्ञात लिपियों से की जा सकती है। दायों से बायीं ओर को लिखी जानेवाली खरोष्ठी या खरोट्ठी का आविष्कार फवाङ् शुलिन12 के कथनानुसार खरोष्ठ (गधे से ओष्ठवाला)13 ने किया था। यह वही लिपि है जिसे विद्वानों ने पहले बैक्टीरियन, इंडो-बैक्टीरियन, बैक्ट्रो-पालि, एरियानो-पालि आदि-आदि नामों से अभिहित किया था । द्राविड़ी या डामिली शायद ब्राह्मी का ही अंशतः स्वतंत्र भेद है। हाल ही में इसका पता कृष्णा जिले में भट्टिप्रोल के स्तूप से प्राप्त धातु-पात्रों से लगा है। इनके अलावा, पुष्करसारी या पुक्खरसारिया नाम भी ऐतिहासिक है। इसका संबंध पुष्करसादि या पौष्करसादि (उत्तरी बौद्ध-परम्परा के पुष्करसारि) नाम
10. इंडिया, 1, 171 (सचाऊ)
11. वही; लगभग 30 नामों की एक तीसरी सूची जिसमें अधिकांश नाम भ्रष्ट हैं महावस्तु 1, 135 (सेनार) में हैं।
12. बै. ओ. रे. 1, 59 ___13. मिला० वी. त्सा. कु. मो. 9, 66 और बु, इं. स्ट. III, 2, 113 तथा आगे।
14. ए. इं. 2, 323 तथा आगे
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