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लेखन-कला की प्राचीनता से है। पाणिनी, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और अन्य ग्रंथों में इस नाम के एक या अनेक धर्मशास्त्रियों और वैयाकरणों का उल्लेख है । असम्भव नहीं कि पुष्करसद वंश के किसी व्यक्ति ने किसी नई लिपि का आविष्कार किया हो या किसी प्रचलित लिपि का ही संस्कार कर उसे नया रूप दिया हो। जैनों की सूची में यवणालिया या यवणाणिया का भी उल्लेख है । यह वही लिपि है जिसे पाणिनी (परंपरा-प्राप्त तिथि लगभग 300 ई० पू०) ने यवनानी15 अर्थात् यवनों यानी यूनानियों की लिपि कहा है। ई० पू० 509 में स्काइलैक्स ने उत्तरी-पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया था। उसी समय भारतीयों का यूनानी लिपि से परिचय हुआ होगा। जेसीज का जबं यूनान से युद्ध हुआ था तो उसमें भारतीय और गांधार सैनिकों ने भी भाग लिया था। यूनान से भारतीयों का व्यापारिक संपर्क भी पुराना है। अतः भारतीयों का यूनानी लिपि से परिचय संभव है। चाहे जो भी हो सिकंदर से पूर्व उत्तरी-पश्चिमी भारत में यूनानी वर्णमाला का प्रयोग होता था; क्योंकि यूनानी मान के ऐटिक द्राम की अनुकृति वाले इस काल के सिक्कें इस प्रदेश में मिले हैं जिनपर यूनानी लिपि में अभिलेख हैं17 1
इस प्रकार अभिलेख-शास्त्र और पाणिनी तथा स्वतंत्र उत्तरी बौद्ध परंपराओं की साक्षी से यह सिद्ध होता है कि जैनों की सूची में जिन लिपियों की गणना है उनमें कुछ तो निश्चय ही प्राचीन हैं और उनका पर्याप्त ऐतिहासिक मूल्य है ।
और इस बात की पर्याप्त संभावना है कि ई० पू० 300 में भारत में अनेक लिपियाँ ज्ञात या प्रचलित थीं। जैनों ने इनकी संख्या 18 दी है। इसे एक रूढ़ सख्या ही मानना उचित है, क्योंकि परंपराओं में प्रायः यही संख्या मिलती है।
दृष्टिवाद जैनों का एक लुप्त ग्रंथ है । इसके एक अवतरण में ब्राह्मी के संबंन्ध में कुछ और सूचनाएं मिलती हैं ।18 इस ग्रंथ के अनुसार इसमें 46 मूल चिह्न थे, जबकि सामान्यतया इनकी संख्या 50 या 51 मानी जाती है । निःसंदेह इसका तात्पर्य निम्नलिखित अक्षरों से है :--अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, (10) अं, अः; क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, (20) झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, (30) धन, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल (40), व, श, ष, स, ह और ळ ऋ, ऋ, लु, ल की मात्रिकाएं और संयुक्ताक्षर क्ष (बाद में इसे भी
: 15. महाभाष्य 2, 220 (कीलहान) 16. हेरोडोटस, VII, 65, 66
17. वी. वी. हेड, कैटलाग आफ ग्रीक क्वायंस; एटिका, फल XXXI पृ. 25-27 18. वे, इं. स्ट्रा. 16, 281
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