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विराम-चिह्न लकीरें मिलती हैं जो प्रायः झुकी रहती हैं ।458 कुषान अभिलेखों और उनके बाद के कुछ अभिलेखों में इसके बदले दो बिंदियाँ मिलती हैं159 जो हूबहू विसर्ग 'की भाँति दीखती हैं।
6. कभी-कभी अभिलेख के अंत की सूचना देने के लिए दो खड़ी लकीरों के बाद एक आड़ी लकीर मिलती है ।460
7. एक अर्ध चन्द्राकार चिह्न , अशोक के कालसी के आदेशलेखों में (सं. I-XI) अंत को प्रकट करता है ।
8. कुषान अभिलेखों में दो बार मङ्गल सिद्धम् के बाद एक अर्ध चन्द्राकार चिह्न है जिसके बीच में एक डंडा मिलता है जैसे - 21461
अलावा, कभी-कभी छंदों के अंत में अंक ही उनके अंत के द्योतक होते हैं, जैसे फ्ली. गु. इ. (का. इ. ई. III) सं. 1, 2 और इसी प्रकार मङ्गल प्रतीक (दे. आगे ई) अभिलेखों या प्रकरणों के अंत में, विशेषकर हस्तलिखित ग्रंथों में जैसे बावर की प्रति में, मिलते हैं। ___ अंत में, अशोक के गिरनार के आदेश लेख और जौगड़ और धौली के पृथक् आदेश लेखों में उनके चारों ओर के फ्रेम की ओर ध्यान आकर्षित करना जरूरी है।
अभिलेखों से भारतीय विरामादि चिह्नों के इतिहास पर जो कुछ प्रकाश पड़ता है उसे संक्षेप में निम्नलिखित ढंग से कह सकते हैं। प्राचीन काल में ईसाई सन् के प्रारंभ तक एक लकीर सीधी या सभंग ही इस्तेमाल में आती थी। इसका प्रयोग भी बहुत कम होता था। ईस्वी सन् के प्रारंभ के बाद से हमें और अधिक जटिल चिह्न मिलने लगते हैं। किन्तु 5वीं शती तक इनका इस्तेमाल अनियमित
458. देखि. उदाहरणार्थ, प्रतिकृति, ए. ई. I, 389, सं. 14; फ्ली. गु. इं. (का. इं. ई. III) सं. 3 फल. 2 B, 40, फल. 26, 41, फल. 27, और 55, फल. 34; इं. ऐ. VI, 17 (आवदीता के उपरांत).
459. ए. ई. I, 395, सं. 28, 29 (दानम् के उपरांत); फ्ली. गु. इं. (का. इं. ई. III) सं. 38, फल. 24, 1, 35; सं. 55, फल. 34 (अंत में); इं. ऐ. V, 209 (अंत में), इन अभिलेखों में और अन्यत्र भी इस चिह्न को गलती से विसर्ग के रूप में पढ़ा गया है ।
460. देखि. उदाहरणार्थ, प्रतिकृति, इं. ऐ. VI, 76; ए. ई. III, 260. 461. ए. ई. II; 212, सं. 42, और टिप्पणी.
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