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VII. अभिलेखों और हस्तलिखित ग्रन्थों का बाह्य विन्यास
36. पंक्तियां, शब्दसमूह, विरामादि चिह्नांकन और अन्य बातें अ. पक्तियां
पत्थरों को चिकना कर खोदे गये प्राचीनतम अभिलेखों में भी हिन्दुओं ने सिलसिले से सीधी पंक्तियाँ बनाने और मात्रिकाओं के ऊपरी सिरों को बराबर ऊँचाई पर रखने की कोशिश की है । अशोक के कारीगरों को स्तंभलेखों और गिरनार, धौली और जौगड़ में भी ऐसे क्रमबद्ध शब्दों में जो अधिकांश में एक ही समूह के हैं पंक्ति बनाने में बहुत कम सफलता मिली है । (दे. आगे आ ) किंतु उसी काल के अन्य प्रलेखों में जैसे घसुंडी प्रस्तर अभिलेख में बाद में 129 प्रचलित साधु सिद्धांत का अधिक सतर्कता से प्रयोग मिलता है जिसके मुताबिक स्वरचिह्न, रेफ और ऐसे ही जोड़ ऊपरी पंक्ति से बाहर निकल आ सकते हैं । यह नियमबद्धता संभवतः ऊपरी पंक्ति को खड़िया से निशान लगाकर बना लेने से संभव हुई । यह प्रक्रिया भारत में अभी तक प्रचलित है । हो सकता है इसके लिए कोई दूसरी यांत्रिक प्रक्रिया भी काम में लायी गयी हो ।
हस्तलिखित ग्रंथों में पंक्तियाँ सीधी और समानांतर हैं। पुराने से पुराने ग्रंथों, जैसे खोतन के धम्मपद में भी ऐसा ही मिलता है । ये पंक्तियाँ संभवतः किसी रूलर की सहायता से बनायी गयी हैं (दे. आगे 37, औ) । ताड़पत्रों पर लिखे प्राचीन ग्रंथों में और बाद के अनेक उन ग्रंथों में जो कागज पर लिखे गये हैं पंक्तियों के अंत को दिखलाने के लिए दो खड़ी लकीरें पन्ने के ऊपर से नीचे तक खींच दी गई हैं । हस्तलिखित ग्रंथां में पक्तियाँ आड़े बनायी जाती हैं और सिरेसे निचले भाग तक रहती हैं । अधिकांश अभिलेखों में भी ऐसा ही होता है । किंतु कुछ अभिलेख ऐसे भी हैं जिन्हें नीचे से पढ़ना पड़ता है । 430
429. पश्चिमी गुफाओं, अमरावती, मथुरा आदि से मिले अभिलेखों में ऐसा ही होता है । मिला. ब., आ. स. रि. वे. इं. जिल्द IV, और V; वही, जिल्द I; ए. ई. II, 195 और दूसरी प्रतिकृतियों से ।
430. वी. त्सा. कु. मो. V, पृ. 230 तथा आगे । इस माला में स्वात से हाल ही में प्राप्त एक अभिलेख और जुट जाएगा ।
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