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संख्यांक लेखन
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इनका कारण
।
उसके अक्षर या पद होते हैं, पर ये हमेशा एक ही नहीं होते । अक्सर इनमें कुछ भेद कर दिये जाते थे । इसका कारण शायद संख्या- मानों से अक्षर-मानों के चिह्नों को दिखलाना रहा हो । कभी-कभी भेद काफी बढ़ जाते हैं । पुराने चिह्नों का गलत ढंग से पढ़ना या उच्चारण के विभाषागत भेद प्रतीत होते हैं । ये चिह्न अक्षर ही हैं । इसकी पुष्टि जैनों द्वारा इस प्रणाली के लिए रखे गये नाम अक्षरपल्लि से भी होता है । दाशमिक प्रणाली-अंकपल्लि से इसे अलग करने के लिए जैन इसे अक्षरपल्लि कहते थे | 383 जैन टीकाकार मलयगिरि ( 12वीं शती) 384 4 के चिह्न को क शब्द कहता है । इससे प्रकट होता है कि वह सचमुच में चतुः नहीं, बल्कि क ही उच्चारण करता था । फलक IX, A स्त. XIX - XXVI385 के चिह्नों और अन्य चिह्नों के बेंडेल (बे.), भगवानलाल इन्द्राजी ( भ. ), की लहार्न ( की. ) लूमान (लू.) और पीटरसन (पी., देखि ऊपर की टिप्पणी 377 ) द्वारा दिये गये उच्चारणमूल्य निम्नलिखित हैं :
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4=ङ्क (XIX; मिला. लू. पृष्ठ 1 )
;
इसे ही जानबूझ कर भेद करने
ड के स्थान पर ण समझकर मिला. की. )
या क (XX,
;
से ङ्कं (लू. पृ. 1 ) और ङ्की ण्क (XXVI; बे., भ. ), XXI) या : क (XXIII; बे. ) से भी व्यक्त करते हैं ।
(XXV ) कं (XXIV;
383. मौखिक सूचना |
384. इ. ऐ. VI, 47. ।
5=तृ (XIX, XXI, XXV, XXVI, बे., भ., की. ) । इसे ही जानबूझ कर अलग करने से तू (भ., की. ) से; ऊपर की लकीर को गलती से आ की मात्रा मानकर (XXIV) से; त के भंग के एक गलत निर्वचन
385. फलक IX. V, स्त., XIX XXVI निम्नलिखित ढंग से तैयार किये गये हैं:
स्त. XIX. हार्नली की बावर की हस्तलिखित प्रति को प्रतिकृतियों से । स्त. XX-XXIII और XXVI, बेंडेल के टेबुल ऑफ न्यूमरल्स, सं. 1049, 1702, 866, 1643, 1683 से अंक काटकर ।
स्तं. XXIV. भगवान लाल कीलहार्न, और लूमान के फलकों के आधार
F पर ।
स्तं. XXV, उन्हीं ग्रंथों से, किंतु 8, 9, 100 जकरिया के साहसांकचरित, रायल एशियाटिक सोसायटी के फोटोग्राफों से लिये गये हैं ।
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