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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र वृहत्तर संख्याओं के चिह्नों से अलग उनके दायें या ठीक नीचे रखे जाते हैं। इनमें पहला सिद्धांत सभी अभिलेखों और अधिकांश सिक्कों में और दूसरा कुछ सिक्कों379 और हस्तलिखित पुस्तकों के पृष्ठांकन में काम में आया है। 200
और 2000 दिखलाने के लिए 100 और 1000 के दायें एक छोटी-सी लकीर जोड़ देते हैं। इसी प्रकार 300 और 3000 के लिए इन्हीं अवयवों में क्रमश: 2 लकीरें बना देते हैं। साथ ही 100 और 1000 के संयुक्ताक्षरों के साथ 4 से 9 और 4 से 70के चिह्नों को जोड़ कर 400 से 900 और 4000 से 70000 की संख्याएं दिखाते थे (70000 सबसे बड़ी ज्ञात संख्या है ) । लघुतर अंक बृहत्तर अंकों के दायें जोड़े जाते हैं ।
जैन हस्तलिखित ग्रंथों में एक अपवाद 400 के लिए है। अपनी पोथियों के पृष्ठांकन में जैन और बौद्ध प्रायः 1 से 3 के लिए दाशमिक अंकों का प्रयोग करते हैं (फल. IX, A स्त. XIX--XXVI) । पुस्तकों में संख्यांक सूचक अक्षर ए (एक), द्वि, त्रि या स्व (1), स्ति (2); श्री (3) मिलते हैं पर दाशमिक अंकों से कम। स्वस्ति श्री प्रसिद्ध मंगल वाचक पद है जिससे प्रलेखों का प्रारंभ होता है। कभी-कभी एक ही प्रलेख में दाशमिक प्रणाली के शून्य और अन्य संख्यांकों381 के साथ-साथ प्राचीन संख्यांक सूचक चिह्न भी मिलते हैं । बाद के कतिपय अभिलेखों में भी इस प्रकार की मिलावट है। जैसे, देवेन्द्र वर्मन के चिकाकोल पट्टों में संवत् 183 को पहले शब्दों में, फिर 100 का चिह्न, दहाई 8 और लो-लोक=3 (देखि. आगे 35, अ) से द्योतित किया गया है । मास की तिथि 20 को केवल दहाई अंक से प्रकट किया गया है ।382
हस्तलिखित ग्रंथों में इस प्रणाली के चिह्न जिस लिपि में पुस्तक होती है
379. मिला. ज. रा. सो. 1889, 128 ।
380. इ. ए. VI, 44; कीलहान, रिपोर्ट फार 1880-81, X; पीटरसन, रिपोर्ट, 57.।
381. कीलहान, वही; बेंडेल कैटलाधी, LIII ।
382. मिल. ए. ई. III, 133, प्रतिकृति और उस जिल्द के परिवर्द्धन और संशोधन देखिए। चिह्न फल. IX, स्त. XV 2, 3, 8b, 100 a के अंतर्गत दिये गये हैं। मिश्रण के अन्य उदाहरणों के लिए देखि. फ्ली. गु. इ. (का इ. इ. III) सं. 292, और इं. ऐ. XIV, 351, किंतु जहाँ तिथि 800 4 9=849 दी गई है।
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