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भारतीय पुरालिपि - शास्त्र
पेपाइरस वैटिकानस में भी मिलता है । 30, 40 और इसी प्रकार की संख्याओं के लिए अरामियन और फोनेशियन लोग भी हिंदुओं की भाँति 10 और 20 के चिह्नों का इस्तेमाल करते थे ।
100 के चिह्न के लिए यूटिंग के फलक में कोई संगत चिह्न नहीं है । उनके सक्कारा अभिलेख के संस्करण में 372 जो चिह्न है वह भी निश्चित नहीं है, जैसी सूचना उन्होंने मुझे दी है । इसलिए तुलना के लिए फोनेशियन चिह्न 10, P, ही बच रहते हैं । किंतु फोनेशियन और अरमैक अंकन पद्धति में बड़ा घनिष्ट संबंध है । इसलिए यह संभव प्रतीत होता है कि अरमैक में भी प्राचीन समय में 100 के लिए सीधे खड़ा एक चिह्न रहा होगा । खरोष्ठी में 100 के पहले 1, 2 के चिह्न लगाने की प्रथा थी । यह प्रथा सभी सेमेटिक संख्यांक - लेखन प्रणालियों में मिलती है ।
4 के लिए झुका कास बनाने का रिवाज उत्तरकालीन खरोष्ठी अभिलेखों में मिलता है । यह ढंग नेबेशियन अभिलेखों में भी मिलता है जो ईस्वी सन् के प्रारंभ के हैं। बड़ी संख्याओं के प्रदर्शन में इसका इस्तेमाल बहुत कम होता था । भारतीय और सेमेटिक अभिलेखों में यह चिह्न बहुत बाद में मिलता है । संभवतः हिंदुओं और सेमाइटों ने एक साथ ही मूलभूत चारों लकीरों को जल्दी से लिखने के लिए इस क्रास की ईजाद की ।
34. ब्राह्मी के संख्यांक : फलक IX संख्यांक 373
अ. प्राचीन अक्षर
ब्राह्मी के अभिलेखों और सिक्कों के लेखों में संख्यांक - लेखन की एक विचित्र प्रणाली मिलती है । इसके स्पष्टीकरण का श्रेय मुख्य रूप से जे. स्टीवेंसन, ई. टामस, अले. कनिंघम, भाऊदाजी, और भगवानलाल इन्द्राजी को है 1374
372. Palaeograplical Society, Or. Ser., फल. 63 1
373. मिला. भगवान लाल, इं. ऐ. VI, 42 तथा आगे; ब. ए. सा. इं. पै. पृ. 59, 40 और फल 23, बेली, आन दि जीनिओलाजी आफ दि माडर्न न्यूमरल्स, ज. ए. सो. बं. ( न्यू . स . ) XIV, पृ 335 तथा आगे ; XV, पृ. 1 तथा आगे ।
374. ज. बा. ब्रा. रा. ए. सो. V, 35 फल 18; प्रि. इं. ऐ. II, 80; क : आ. स. रि. I, XL1I, और ज. ए. सो. ब., XXXIII, 38; ज. बां. ब्रा. रा. ए. सो. VIII, पृ. 225 तथां आगे; अंतिम लेख के निष्कर्ष भगवान लाल के हैं, यद्यपि वहाँ उनका नामोल्लेख नहीं ।
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