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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० भारतीय पुरालिपि-शास्त्र दार' लिपि संस्कृत से भिन्न हैं । न इसमें केवल संयुक्ताक्षर ही नहीं होते अपितु महाप्राण, सघोष, ऊष्म, घर्ष वर्ण, अनुस्वार, विसर्ग के चिह्न भी नहीं होते। सघोष को तदनुरूप अघोष से व्यक्त करते हैं । ऊष्म ध्वनियों में तालव्य ऊष्म को च से व्यक्त करते हैं। इसमें कुछ नये वर्गों का विकास भी हुआ है, जैसे अंतिम हलंत न, ड़, ळ और ळ अंतिम तीन अक्षर तदनुरूप तेलुगू-कन्नड़ के चिह्नों से नहीं मिलते। वर्णमाला की यह अति सरलता तमिल वैयाकरणों के सिद्धांतों से मेल खाती है और इसका खुलासा तमिल भाषा के विलक्षण ध्वनिशास्त्र से हो जाता है। सभी पुरानी द्रविड़ विभाषाओं की भाँति तमिल में भी महाप्राण और घर्ष वर्ण नहीं हैं । इसमें ज भी नहीं है । ऊष्म ध्वनि भी एक ही है जो काल्डवेल के मत से श, ष और च के मध्य पड़ती है। इसे दुहरा करके उच्चारण करने पर यह स्पष्ट ही च्च हो जाती है। सघोष और अघोष के लिए अलग-अलग चिह्न देना अनावश्यक था, क्योंकि इनका परस्पर विनिमय हो जाता है। तमिल में शब्दों के प्रारंभ में केवल अघोष का और मध्य में केवल दुहरे अघोष या एकल सघोष का इस्तेमाल होता है। इसलिए उन सभी शब्दों या प्रत्ययों के दो रूप हैं जिनका प्रारंभ कंठ्य, मूर्धन्य, दंत्य या ओष्ठ्य ध्वनियों से होता है । 353 इन सीधे-सादे नियमों के ज्ञान से क, ट, त और प के शुद्ध उच्चारण में त्रुटि हो ही नहीं सकती । संयुक्ताक्षरों के इस्तेमाल न होने का कारण संभवतः यह है कि तमिल में--यहाँ तक कि दूसरी भाषाओं से आये शब्दों में भी--किसी व्यंजन में केवल उसी के द्वित्व के अतिरिक्त दूसरा व्यंजन नहीं जुट सकता, और क्योंकि इस परिस्थिति में विराम का इस्तेमाल अधिक सुविधाजनक होता है । 354 तमिल वर्णमाला में द्राविड़ी द्रव वर्ण है। इसकी ध्वनियाँ तो पुरानी कन्नड़ और तेलुगू के अनुरूप हैं, पर तेलुगू-कन्नड़ लिपि से इनके चिह्न भिन्न हैं। इससे प्रकट होता है कि तमिल लिपि का तेलुगू-कन्नड़ से स्वतंत्र अस्तित्व है और इसकी उत्पत्ति किसी अन्य स्रोत से हुई है । हुल्श ने कूरम पट्टों के रूप में एक महत्त्व 353. काल्डवेल, कंपरेटिव ग्रामर आफ द्राविडियन लैंग्वेजेज, 21-27. 354. बर्नेल, ए. सा. इ. पै. 44, 47 में एक दूसरे मत का प्रतिपादन करता है । उसका विचार है कि वट्टेळत्तु लिपि ब्राह्मी से स्वतंत्र है । इसका भी मूल सेमेटिक ही है। ग्रंथ लिपि से वट्टेळुत्तु का स्वर-प्रणाली के अनुरूप परिवर्तन कर ब्राह्मणों ने तमिल लिपि बनायी। इस मत के बारे में काल्डवेल (वही, 9) ने पहले ही कह दिया है कि “यह तथ्यों के अनुकूल नहीं।" 150 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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