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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र
खुदवाये जाने में इतने ही समय का अंतर है। (देखिए ऊपर अ) । संभवतः कूरम लिपि का इतिहास इससे प्राचीन है।
इ. संक्रातिकालीन ग्रंथ-लिपि आठवीं शती के प्रकाशित पल्लव अभिलेखों की शृंखला-जिनकी तिथियाँ दी जा सकती हैं, कशाकुडि पट्टों से खत्म हो जाती है। आगे की शताब्दियों के प्रलेखों की प्रतिकृतियां मुझे नहीं मिल पाई हैं। इसलिये मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि तीसरे या ग्रंथलिपि के संक्रांतिकालीन विभेद का, जिसे बर्नेल चोल या मध्य ग्रंथ-लिपि कहता है, प्रयोग कब से शुरू हुआ। बाण-राजा विक्रमादित्य 349 (लग. 1150 ई.) के राज्यकाल के अभिलेखों (फल. VIII, स्त. XIV) और सुंदर पाण्ड्य 350 ( ई. 1250) के अभिलेखों और अन्य प्रलेखों 351 में इस लिपि के दर्शन होते हैं। किंतु गंग-अभिलेखों (फल. VIII, स्त XI, XII) में ग्रंथलिपि के चिह्न मिलते हैं और 1080 ई. की बर्नेल की चोल-ग्रंथ लिपि352 से भी यह प्रकट होता है कि नवीन विकासों में कुछ का उदय 8वीं शती में और कुछ का 9वीं-10वीं शती में हुआ। इसी समय के आसपास प्राचीन कन्नड़-लिपि (ऊपर 29, इ) भी बनी।
__ संक्रांतिकालीन ग्रंथ-लिपि में मिलने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन निम्नलिखित हैं :
1. इ की अंतिम अवशिष्ट बिंदी का लोप (फल. VIII, 3, XIV, XV, मिला. 3, XIII, a) ।
2. कूरम के ए (फल. VII, 6, XXIV) से, उससे भी अधिक घसीट रूप का बनना (8, XIV)।
3. फल. VII, 9, XXIII के ख से उससे भी अधिक घसीट ख (फल. VIII, 12, XIV, XV) का निकलना जो उत्तरकालीन तेलुगूकन्नड़ अक्षर (फल. VIII, 12, III और आगे) से बहुत मिलता-जुलता है ।
349. ए. ई. III, 751 .: 350. ए. ई. III, 8.
351. मिला. इं. ऐं. VI, 142; VIII, 274; IX, 46 (ए. ई. III, पृ. 79); ए. ई. III, 228; ए. क. III, 166; II, फल. 2; अंतिम दोनों अभिलेख 11 वीं शती से पुराने हैं। 352. ब. ए. सा. इं. पै. फल. 13.
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