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ग्रंथ लिपि
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तरण और बीच के डंडे का फंदे
बदलना जो नीचे के
डंडे में जुड़ता है
( फल. VII, 15, XXIV; फल. VIII, 15, XXIV; फल. VIII, 18, XIII; किंतु फल. VII, स्त. XXIII में ऐसा नहीं हुआ है ) ।
8. औरत के सिरों का पहली बार खुलना ( फल. VII, 23, 25, XXIII, XXIV; फल. VIII, 26, 28, XIII)।
9. ब के सिरे का खुलना और इसकी मूल शिरोरेखा का बाएं हाथ की खड़ी रेखा के बाएं स्थानांतरण (फल. VII, 29, XXIV; फल. VIII, 32, XIII, किंतु फल. VII स्त. XXIII में ऐसा नहीं हुआ है ) ।
10. उत्तरकालीन उत्तरी भ (दे. ऊपर 24, अ, 24 ) का ग्रहण या हूबहू वैसे ही किसी चिह्न का विकास ( फल. VII, 30, XXIV; फल. VIII, 33, XIII; किंतु फल. VII, स्त. XXIII में ऐसा नहीं हुआ है ) ।
11. स के बाएं हाथ की खड़ी रेखा का पुराने पावग के बाएं किनारे से और पाश्वग के दाएं किनारे का आधार रेखा से जुड़ना ( फल. VII, 38, XXIV; स्त. XXII का संक्रान्तिकालीन रूप और फल VIII, 41, XIII में एक अन्य घसीट रूप देखें ) ।
12. आ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राओं को मात्रिकाओं से प्रायः अलग रखना (व्यंजन फल. VIII, स्त. XIII में ), और आ की मात्रा का पंक्ति के ऊपर रहना जैसा कि इस काल की उत्तरी लिपि और मध्य भारतीय लिपि में होता है । ( तुलना कीजिए, फल. VII, 17, 19, 21, 31-33, XXIII; 8, 24, XXIV)।
13.
विराम के लिए ( तेलुगू- कन्नड़ लिपि की भाँति ) खड़ी रेखा का ऊपर या कशाकुड़ि पट्ट में अंतिम व्यंजन के दाएं बनाना ( फल. VII, 41, XXIII, फल. VIII, 47, XIII, और प्रतिकृतियों से मिलान कीजिए) ।
14. अनुस्वार का मात्रिका के दाएं शिरोरेखा के धरातल के नीचे स्थानांतरण जैसा तेलुगू - कन्नड़ लिपि में होता है ( फल. VII, 38, XXIV)।
15. खड़ी रेखाओं के सिरों पर कभी-कभी ऊपर को खुले कोणों का विकसित होना, फल. VIII, स्त. XIII में इसके बाएं भाग के लिए एक बिंदी दिखाई देती है ।
कूरम पट्टों की लिपि पूर्णतया विकसित और एक ढर्रे की है। इससे इस बात की संभावना अधिक है कि इसका विकास बीस-तीस वर्षों में नहीं हुआ होगा । कूरम पट्टों के जारी होने और नरसिंह प्रथम द्वारा बादामी अभिलेख के
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